-ःः लेखक निवेदन:ः-
गुरुदेव राम घनश्याम तीनों ने घोष व प्रमाणित किया कि’’ सद्गुरु ही परंब्रह्म है । ’’उन्हीं का पूजन करना आदि’’। उत्तम पुरुष वह जो’’ अनेक विषय भोगते किसी से ममत्व नहीं रखता । ’’अभ्यास में पुनरावृत्ति आवश्यक है। लिखते’’ अनेक बार एक ही क्रिया करने में आवे विचार स्फुरे वे स्वाभाविक होगे। और ’’क्रियाऐं भी स्वाभाविक होगी।’’ स्फूर्णाए भी स्वाभाविक होगी । फिर ’’योग क्रियाऐं भी स्वाभाविक होगी।’’स्फूर्णाए भी स्वाभाविक होगी । फिर ’’योग क्रिया आवश्यक नहीं’’। (बोधवाणी)
ऐसे मनुष्य साम्यबुद्धिक बुद्धिमान होते । उनके विचार उपनिषदों अनुरूप होते।’’ वे प्रज्ञावान है। उनकी कृति आत्मवित की होती । वह देश सुसंस्कृत और समृद्ध होता।’’ वहाँ अवतरण होता है लिखते’’ कर्मयोग कर बताने वाल्ो कर्मयोगियों को ही प्रकृति के आदेश के अधीन होकर जन्म ल्ोना पड़ता है। (बोधवाणी)
’’आगे सतयुग के आगमन पर लिखते कलयुग’’ के दिन पूरे होने तक लिखते’’ सतःयुग पुनः स्थापित होगा’’ हिन्द माता तेरे कैसे-कैसे रत्न उन्हें कली की अधिभौतिकी गुणों में जाकर रहना पड़ा । ’’कलयुग में सतयुग का बीजारोपण क्रम-क्रम- उत्तम शान्ति का समय जैसा समय लाने में सहायक होना चाहिए। ’’साक्षात् कृष्ण जन्मेगे । सत की मर्यादा बाँध्ोंगे।’’ वे ही सत है। (बोधवाणी) रामश्याम गोपाल ही सत्य है । वहीं होगा जो वे चाहेगे । कहेगे । अन्यथा हो ही नहीं सकता । पूरा जीवन प्रमाण है । ’’तुझ सत्ता बिन पत्र्ा न हाल्ो । उनकी लीलाएँ है । वचन है। लिखते उसे बुलाओ सत्ययुग की उपासना करो।’’ निमन्त्र्ाो । निमन्त्र्ाो । ’’उच्चपद-मोक्षपद तो लक्ष्य बिन्दु को और कर्म योग आचरित करते हुए अवश्य रखना ।’’सत्ययुग की राह देखते रहो-उसकी क्रिया को गर्भ पोषण करना कहा जायेगा । यही नहीं इसके आगे लिखते’’ ऐसा सत अथवा असत है और वह मोक्ष से भी अधिक उच्चपद धारण किया हुआ है । उस और लक्ष्य उसकी उपासना है। उपासना से तत् स्वरूप दिखाई देवे ।’’(बोधवाणी) गुरुदेव भक्त में उस स्थिति में देखना चाहते । ल्ो जाते है । परम सत्य तो गुरुदेव ही है । जहाँ कृष्ण योगेश्वर और धनुर्धर पार्थ वहीं विजय है । उन सतगुरु के चिन्तन से उनका स्वरूप सामर्थ्य, ऐश्वर्य अध्यात्म सब भक्त में आता है । दे देते । वे साकार ब्रह्मा है । भक्तों पर द्रवित हो आनन्द देने आते और जगत के दुराचार का विनाश करते । सुख, शान्ति, आनन्द धर्म आदि को स्थापित करते ।
प्रस्तुत पुस्तक में सतयुग संतो के संकल्प से क्रमशः चेतनता वृद्धि के साथ आ गया है । आनन्द वृद्धि हो रही है । बाबजी ने कहा’’ ऐसा समय आवेगा । (बोधवाणी) सभी प्रकार के संतों का अवतरण हो रहा है । सब विधाए अपने पूर्णत्व की ओर है । वचन, क्रिया संकल्प रामश्याम, गोपाल व ब्रह्म ज्ञानियों के व ब्रह्मनिष्ठ के ही सत्य है । वे सूक्ष्म से स्थूल में क्रमशः आते है । बाबजी ने कहा ’’संतों की पार्लियामेन्ट है वे करते वही सब यहाँ होता।’’ वही हो रहा है ।
ताराबेन और कनुभाई का कहना है-पुनरावृत्ति व निरासता से उपेक्षा होती । बाबजी ने कहाँ भक्ति में पुनरावृत्ति दोष नहीं’’ बार-बार वे ही लीला चिन्तन करते । आज्ञा पालते । पूजा करते । गुरु के शब्दों का चिन्तन मनन करते । उन्हीं का मन्थन करते । उनके ब्रह्म वाक्य वेद है । उनकी हजारों किरण्ो हैं । हम तो एक को भी नहीं समझ पाते । जितनी बार उनको शब्दों को चिन्तन करे उतने नये ज्ञान तत्व अनुभूत होते । अनन्त में से अनन्त निकाला तो अनन्त है । बार-बार हम गुरुदेव के साथ शाóों को वेद उपनिषद का बार-बार प्रचार कर हरि नाम से जगत का उद्धार करना चाहते । पुनरावृत्ति बार-बार होती रहे यही चाहते ’’यथापूर्व कल्पयत’’ ’’वेद के अनुसार गुरु ब्रह्म बार-बार वैसी की वैसी सृष्टि करते । पुनरावृत्ति दोष नहीं माना जाता । बार-बार एक ही प्रकार की क्रियाएँ अभ्यास व वैराग्य बल से योग से भी और भक्ति में भी पार लगाने के साधन है ।
उपेक्षा के कारण सद्कर्म नहीं छोड़े जाते । अधिक रुचिकर बनाने का प्रयत्न करते । और रुचि उत्पन्न करने के लिये सत्य गुरुदेव से प्रार्थना कर करते है ।
दोष सब मेरे है । गुण सब गुरुदेव के । मोटा विश्वनाथ भई को दर्शाए सिद्धान्तों के अनुसार बाबजी की लीला गुरुदेव के वचन शाó प्रमाण से ब्रह्मनिष्ठ गुरुदेव साक्षात ब्रह्म है। सत्य है । बताने का प्रयत्न गुरुदेव की दया से किया । दोषों के लिये विद्धवजन क्षमा करेंगे व तत्व की और दृष्टि रख्ोगें । क्षमा, प्रार्थना के साथ, सद्गुरु देवराम व घनश्याम व गोपाल के चरणों में अर्पण ।
दिनांक 10/11/88
वार गुरूवार को मोटा विष्वनाथ भई से सत्संग चर्चा में कहा -
’’सतयुग को प्रार्थो ’’सतयुग की मांग करो ’’ गुरूदेव ने लिखा ।
’’और तब दसवीं बार महान ईष्वर अवतार साक्षात् श्री कृष्ण भगवान जन्मेगें। उसे सतयुग का बालक ही समझना। जन्म लिया वे सत शब्द की कितनी मर्यादा बांधी जा सकती उसका विचार करना चाहिए। इस प्रकार इस जमाने का फतेमन्द होना इसमें भी एक कुदरती कारण है। ऐसा समझकर सतयुग के गर्भ को निमंत्रो ! निमन्त्रो ! (बोध. 35)
आगे गुरूदेव लिखते है ’’इतना अवश्य याद रखना कि इस प्रकार के स्वराज्य का माध्यम पद ढूँढते हुए उसी में ललचाना नहीं है। (बोध. 35)
आगे फिर लिखते है ’’ इससे भी अधिक मोक्ष पद जो कि उत्तमोत्तम है, उसकी ओर तो लक्ष्य बिन्दु कर्म योग आचरित करते हुए अवश्य रखना है ’’ (बोध. 35) आगे गुरूदेव आदेश देते है करने को ’’सत्य के युग के आने की राह देखते रहो - उसी क्रिया को गर्भ पोषण करना कहा जायेगा।’’ (बोध. 35)
सतयुग जहां हो। शिव संकल्प हो। ज्ञान हो। आत्मज्ञान हो। शिवोऽम। तत्वरूप। अध्यात्म ज्ञान रूप। (बोध.) सत्संग हो। स्वस्फूर्त विचार हो। जो वेद उपनिषद् से मेल खाते हो। सतयुग निन्मत्रो विचार लोकानुकूल हो। विश्व मान्य हो। नित्य तत्व वस्तु प्राप्त कर्म सतयुग में हो। सतयुग अन्तर का हो। आन्तरिक हो। बाहृय न रहे। ’’अन्तर’’ मय हो। न सुख न दुःख। (बोध.)
तर्क: बुद्धि न रहे। केवल अन्तर में रहे। जागृत रहे। चेतन रहे। सतयुग जहाँ आसक्ति न हो। समानता हो। केवल परम तत्व ही लक्ष्य हो। सदकर्म ही हो। निष्काम कर्म हो। प्रभु समर्पित कर्म हो। सत्य रूप कर्म हो। सत्य रूप कर्म हो। नेत्र जहाँ ब्रह्मरन्घ्र में हो। संकीर्णता न हो उदार मना हो। ऐसा सतयुग निमन्त्रो । सर्वे भवन्तु सुखिनः हो। गुरूदेव राम श्याम गोपाल में निष्ठा हो। उनमें ब्रह्मभाव दृढ़ हो। गुरूदेव में अनन्य शरणागति हो। सब कुछ गुरूदेव को अर्पण बुद्धि हो। जहाँ राम श्याम गोपाल को जीवन अर्पण कर दिया हो। ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरूदेव राम श्याम गोपाल ही ब्रह्म है। सिद्धान्त रूप है। प्रेम रूप है। वे सत्संग से ही जाने जाते है। ज्ञान में जहाँ बुद्धि की व्यापकता हो। जहाँ पूर्ण गुरूदेव की शरणागति का दृढ़ निश्चय हो। जहाँ सतयुग में सत्य को अनुभव हो। (बोध. 2-3)
गुरूदेव के प्रति अटूट प्रेम हो। तेल धारावत ।
सतयुग जहाँ राम श्याम गोपाल को अपनी भक्ति से भक्ताधीन कर ले। जहाँ तेजस्विता हो। अनुभवी ब्रह्मनिष्ठ साक्षात् गुरूब्रह्म की शरण हो जावे। प्र्रसन्न करे। पारस गुरूदेव रूप ने शिष्य को भी पारस बनाने का वचन दिया है। अपना जैसा बनाते। आपने सब देकर। वे क्रीड़ा भ्रमर एक झटके में बनता है उसी प्रकार भक्त जीव को एक झटके में अपना स्वरूप दे देते है। ऐसे सतयुग की प्रार्थना करो जहाँ सम्पूर्ण वैराग्य हो। (5) आत्म तत्व के प्रकाश निर्विकल्प में रहकर व्यवहारिक वेदान्त हो। आनन्दमय हो। शान्ति हो। वैराग्यवान से आनन्द मिलता है। वे अनासक्त व्यवहार करते हो। (6) सतयुग की प्रार्थना करो। ऐसा दयामय हो। कृपा हो। मित्र भाव हो। संतोष हो। आनन्द हो। निस्वार्थ हो। सुविचार हो। ब्रह्मविचार हो। जीवन सत्कार्य में संलग्न हो। दुःख में सहायक हो। सहानुभूति हो। प्रेम युक्त जीवन हो। शान्ति चित्त व प्रभु के व प्रकृति के कार्यो की समझ हो। (7) प्रणव गायत्री की साधना में निरत हो। समाधि सतत हो। स्वतन्त्र स्वस्फूर्त शुभ विचार युक्त जन हो। सुविचार सिद्ध जन हो। ज्ञानी जन हो। सुविचार-योग सिद्ध क्रिया हो। (8-9) सतत जप ने निरत जन हो ऐसा सतयुग निमंत्रो। एक भी क्षण प्रभु के स्मरण बिना न जाय। ’’सांसे सासे रटू थारो नाम’’ अजपा जप गुरूदेव से प्राप्त हो। सब से प्रेम हो व सम्मान हो। संस्कार युक्त हो। क्षमा सरलता, गुरू भक्ति, विवेक, स्थिरता, वैराग्य निष्काम कर्म आदि योग युक्त जीव न हो। (9-10)
राम श्याम गोपाल के समान ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी गुरूदेव हो। पात्र अनुसार उपदेश देते हे। भेद भाव न करे। द्वेष न करें। शुद्ध चित्त में प्रकाशित होते हो। दयाकर भावानुसार प्राप्य हो। ’’श्याम ना वचनो मां झूठक होय नहीं ।’’ मजाक में भी जिनके वचन झूठ न होते हो। उनके कर्म ब्रह्ममय हो। ब्रह्मकर्म हो। क्रोध भी जन कल्याण के लिये हो। इच्छा तृष्णा न हो। ’’ न सोचती न कांक्षति हो।’’
’’आत्मवत सर्वभूतेषु’’ देखते हो। ’’ एक ही आत्मा सब में रम रही है।’’ सिद्ध किया हो। प्रारब्ध अधिन जो नहीं पर बताते हो। सीखाते है। आलस दूर करते। अनासक्ती देते हो। राम श्याम गोपाल ही सर्वकर्म फलरूप है। ऐसी बुद्धि दे। ऐसी श्रद्धा दे। ऐसा विश्वास दे। निष्ठा दे। ’’ध्यान मूलं सद्गुरूमूर्ति ’’उनका ही ध्यान करते हो। पूजा उन गुरू के चरण कमल की हो। उनकी आज्ञा पालन ही सर्वोपरी हो। शिष्य से जगत कल्यार्थ कार्य करवाते । पारमार्थिक कार्य करवाते । महान कार्य करवाते। सन्मार्ग पर चलाते। गृहस्थ में अपने कर्तव्य का निर्वाह करते अध्यात्म में आगे बढ़ाते। समझ देते। ज्ञान देते। वैदिक अनुसरण करवाते। भक्ति देते। ज्ञान देते। कृतकृत्य करते। (11-12) जिज्ञासु बनाते। सतयुग जहाँ गुरूदेव की परम दया हो। वे शिष्य पर सब भक्तों पर दया करे। किये शुभ कर्मो व साधनों पर उदारता दिखाते व आगे बढ़ाते है। सर्वत्र विजय देते है।
गुरूदेव राम श्याम घनश्याम से ऐसे सतयुग की मांग करो, जहाँ गुरूदेव की दया से दिव्य आनन्द, में अध्यात्म में देह सुध न रहे। गुरूदेव से अभिन्न अनुभव करे। अनेक विश्व अपने में बनते हो।् आनन्द ही रहे। सदा आनन्द ही रहे। चतुर्दिश उन्नति होवे। सतयुग जहां ब्रह्मनिष्ठ गुरूदेव के अमृत वचन मंत्र हो। स्वप्न रहे। जहाँ दृष्टा मात्र रहे। वहाँ कोई कर्म न रहे। सत्व ही हो। सत्य ही हो। दूसरा कोई न हो। ’’तत्वमसि ’’ आदि सिद्धान्त सिद्ध गुरू की दया से हो। व्यापकता व अद्धेत सिद्ध कर सफल हो। ’’अखिल ब्रह्माण्ड माँ एक तू ही हरि’’ सब जगह वही है। अनुभव हो। ’’एको ब्रह्मो द्वितीयो नास्ती’’ का उनकी दया से अनुभव हो। गुरूदेव की उपासना हो। आत्मानुभव हो। जहाँ सत्संग हो। ज्ञान ध्यान समाधि आदि हो। अनुभवी बने। (बोध. 12-13-14)
’’आ विश्वना अणु अणु माही आप पोते ने आप एक अखिलेश महद्स्वरूपे।’’ यह ज्ञान दृढ़ हो। ’’सर्व रूप गुरू सर्वमयं गुरू मयं जगत ’’ का अनुभव जहाँ हो उस सतयुग को बुलाओ। स्थापित करो। पवित्र गुुरूदेव का स्मरण करो। सतत जप करो। ’’स्फुरण रूपी स्मरण उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इसे ही स्मरण कहते है। ऐसा स्मरण अनन्त हौ। स्मरणकार अनन्त है। और यही स्मरण है। (बोध. 14)
उस सतयुग में साधक के हृदय में प्रकाश प्रकाश अनुभव होता है। आनन्द अखण्ड रहता है। स्वरूपानुसंधान होता है। आत्म साक्षात्कार होता है सतयुग जहाँ वेदान्त और व्यवहार उनका एक होता है। वेद पठन पाठन होता है। विद्वान पण्डित होते हो। सद्गुरूदेव सुविद्या देते हो। साधक व भक्त साम्यबुद्धि से समझते हो। निष्काम होते। निर्वेर होते। लोक कल्याण एवं पारमार्थिक कार्य करते है। गुरूदेव प्रेम से उनके हृदय में रहते है। शान्त चित्त होते जन। सब जगह गुरूदेव के दर्शन हो। ’’ जाँ देखूत्याँ तमे उभा ’’ म्हारा पार पड़्या मन शुभा’’ सिद्ध होता है। (बोध .12 से 15) प्रसन्न प्रसन्न जन रहते है।
सच्ची स्वतंत्रता, सच्चा स्फूरण, और स्मरण हो। मुक्ति की इच्छा से गुरू की शरण जाते है। वेदान्त अध्ययन हो। स्मरण, जप, ध्यान आदि से ’’यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ’’ का अनुभव होता है। गुरूदेव ही राम प्रभु ही सब इच्छाओ की पूर्ति के नीधि है। (16) जहाँ गुरूदेव की दया से आत्मानुभव होता। सब क्रियाएँ सत्य होती है। सब उन क्रिया से सहमत होते है। एक ही तत्व शेष रह जाता। ’’नैतिनैति’’ करते वही एक मात्र रह जाता है। वही सब कुछ बना अनुभव होता है (17)
भक्त प्रेम में विहृल होकर प्रेमाश्रु से आश्रुपात होता है। ’’कर कपोल भये कारे। ’’उर बीच बहे पनाले ’’ ऐसी अवस्था होती है। गोपाल पूजा करने, आनन्द में रहने, संसार के संस्कार न रखे और जप करने व निड़र रहने का कहते है। (19)
’’गुरूदेव बुद्धि रूप में बिराजे है। सात्विक अभिमान के पार वे ब्रह्म तू ही है। अनुभव गुरूदेव देते है। सत् असत् से परे उन गुरूदेव को जहाँ समबुद्धि द्वारा जाना जाता हो। वह निर्भय, अमृत, जग पालन करता ’’व्यापक छो स्वामी’’ हो जाता है।
सत्ययुग में प्रत्येक कर्म सत्य मय हो जाते। ब्रह्म कर्म हो जाते। बुद्धि और तर्क नहीं रहता। कर्म सतरूप हो जावे। ज्ञान रूप हो जावे। उसका फल आनन्द होवे। सद्गुरू देव की आज्ञा पालन ही एक मात्र मार्ग है। सत् असत से पार निर्गुण दया कर के सगुण गुरूदेव रूप में प्रत्यक्ष हुआ है। धैर्य शक्ति जो ऋषिमुनियों की हमारे रक्त में उसी के बल पर ’’तत्वमसि अहं ब्रह्मास्मि, अयं आत्मा ब्रह्म और ’’अहिंसा परमोधर्म की शक्ति को सहन कर सकते है। अनुभव कर सकते हैै। संकल्प मात्र से सर्वोपरी शक्ति प्रमाणित करते है। जो कभी हारे हीे नही। (20-21,22-23)
सतयुग बुलाओं जहाँ भक्त भक्ति से अधिक सेवा गुरू की कर प्रसन्न करे। श्रद्धा प्रेेम वाले हो। ऊँचे पात्र हो। इशारे मात्र से पूर्णता प्राप्त करे। गुरू की दृष्टि में शिष्य उच्च हो। सम्पूर्ण कर्म प्रभु के लिये जहाँ लोग करें। अलोकिक अनुभवे। सुविचार युक्त हो। सादा जीवन उच्च ब्रह्म विचार हो। संयममय होे। बल युक्त सशक्त विचार हो। शिव संकल्प हो। प्रेम सब से हो। आत्मवत सर्वभूतेषु देखते है।
अद्धेत प्रबल भाव रहे। स्वार्थ व संकीर्ण न हो। जहाँ सब समर्पण गुरूदेव को करते हो। गुरूदेव स्वयं अपने भक्त की महिमा गाने लगे। भगत भर देरे झोली।’’ भक्त निरन्तर प्रभु स्मरण में निरत हो जहाँ गुरूदेव प्रसन्न प्रसन्न हो जावे। अमरत्व देवे। ब्रह्मत्व देवे। भक्ति व अखण्ड आनन्द शिष्य को देवे। शिष्य सब कुछ गुरूदेव से प्राप्त करते हो। गुरूदेव ही मूर्तिमन्त ईश्वर है। वहाँ गुरूदेव से एकता हो जावे। सर्वत्र गुरूदेव की सत्ता दृश्य हो। विक्षेप नहीं माधुर्य ही हो। जहाँ गुरू में ईश्वर प्रेम हो। श्रद्धायुक्त हो। गुरूमय मन हो। तन्मय तन्मय थावो रे। सब अपने अनुभव हो दूसरा न रहे। गुरूदेव ’’श्री राम मां दृढ़ प्रतिज्ञा थता, शुभ लक्षण शा शां देखाता ’’ गुरूदेव आगे आगे तैयारी कर रहे है। पग पग पर अनुभव हो। आनन्द हो। उच्च अवस्था आनन्द दृष्टि से प्रभु देते है। आत्मा की व्याापकता अखण्डता सिद्ध अनुभव परिपक्व हो, सब कुछ अनुकूल हो जावे। (23-28) भक्त ऐसे सत्संग में हो जहाँ गुरूदेव जो करे वही माने उसने अपना शुभ माने। ’’हो वही जो राम रचि राखा ’’ ’’राम करे सो सही ’’ और भी हमको तो यों भी वाहवाह और यांे भी ।’’हर हाल में प्रभु की इच्छा माने। (24)
सतयुग बुलावे जहाँ अद्धेत सिद्ध किया हो। सत्य सिद्ध किया हो। वहाँ कुल स्वभाव अनुसार वाणी शुद्ध हो। सत्यरूप हो बनाते हो। रूप प्रतिष्ठा दिखती हो। (29) चेतन रूप गुरूदेव का जिसे भक्त के भजन में ’’ऊँ नित्य शुद्ध चेतन सद्गुरूदेव आपकी जय हो’’ ’’चेतन स्वयं गुरूदेव ने लिखवाकर बताया। कठिनाई में भी न्याय करे। धर्म पर चले। (29) गुरूदेव अन्तर में जो बतावे वही करे जो सब को धारण करे, सबको परम कर्तव्य फर्ज है को समर्पित होवे। (29) जहाँ धार्मिक कर्म में उत्साह व सहयोग व समर्पण हो। सतयुग बुलाओ आचरो और गुरूदेव ’’ ज्ञान मूलं सद्गुरू वाक्यं’’ सद्गुरू की आज्ञा ही मंत्र व ज्ञान को अन्तिम कर्तव्य माने। गुरूदेव की महिमा शिष्य के माध्यम से सुंगध की तरह व्याप्त होवे। (29)
जहाँ शंका मत करिये। भक्ति में भजन में लीन होकर भक्ति ही भगवान बनकर भक्त को गुरूदेव में एकत्व अनुभव दृढ़ करे। (29) उसे ’’ आप स्परूप ओडखामी ’’ स्वरूप दर्शन कराते गुरूदेव। प्रवृत्ति मार्ग में सिद्ध करते है। गृहस्थ में रहकर। संसार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए। सिद्ध कराते। प्रमाणित करता। गुरूदेव की दया से। जहाँ भक्ति ज्ञान से समझ कर हो। पागल न हो। संसार व्यवहार व प्रतिष्ठा अनुरूपता बनी रहे। भक्ति ही भगवान के शरण में रखती है। पात्र अनुसार व्यवहार देना लेना हो। (30) वहाँ ईश्वर अवतार हो। दया,क्षमा व न्याय देता हो। संसार में रहते कमल की तरह रहे ?प्रयत्न से सुख की खोज करते हो। परंब्रह्म स्वरूप गुरूदेव का देखना पर लक्ष्य याद रहता है। (31) अनुभवी होकर ही जहाँ उपदेश देते हो। अहंकार व दिखावा होकर जहाँ उपदेश न देते हो। अहंकार व दिखावा जहाँ न हो। व्यसन से सत्ययुग में दूर रहते है। ’’मुक्तो अन्याय मुच्चते’’ मुक्त दूसरों को मुक्त वहाँ करते हैं। परा व अपरा प्रकृति के कार्य शक्ति के दृढ़ सिद्धान्त हमें गुरूदेव की दया से समझ में शक्ति स्वयं समझावे। वह स्वयं उसमें व्याप्त दीखे। एकत्व अनुभवे एकत्व अनुभवे और निर्भय होते जहाँ। गुरूकुल हो अध्यात्म व सर्वागिण शिक्षा हो। परतन्त्रतान रहे। राज्य शत्ता के सात्विक स्वरूप दर्शन जहाँ प्रभु कराते हो। सविधि उसकी पूजा हो । ऋषि मुनियों का पूजा का आदेश पालते हो। पात्र बनावे। स्थूल स्वरूप व बुद्धि के लिये आदेश नहीं। सतयुग जहाँ प्रसन्न करने के लिये अन्तिम कमल पूजा करते हो। ’’तत्वमसि ’’ पल ही वही स्वतंत्रता वही एक्यता है ’’ (31-32) उसकी दया से सत का अनुभव होकर एकरूपता होती हो वहाँ अन्तिम ’’ अहं ब्रह्मस्मि’’ की महानता अनुभवे। गुरूदेव की शक्ति से संभव हो सकता है। अमृत पान होता है। वे दया सागर है। वह कमल पूजा सिखाती है। आनन्द आनन्द हो जाता है वहाँ कमल पूजा के लिये पात्र उत्तम भी मिलते है। मृत्यु को जीत लेते है। (32-33)
ऐसा सतयुग हो जहाँ गुरूदेव राम श्याम गोपाल ही को परमब्रह्म मानते हो। पूजा करते हो जहाँ ’’ध्यान मूलं सद्गुरू मूर्ति, पूजा मूलं सद्गुरू पदम मंत्र मूल सद्गुरू वाक्यं, मोक्ष मूलं सद्गुरू कृपा।’’
मानकर ध्यान पूजा अर्जना, सत्संग आदि आदि उनका ही हो। जहाँ
कर्म व्यवहार सब करते पर आसक्ति न हो। स्वस्फूर्त क्रियाएँ होने लगे, विचार आने लगे। वे ही ब्रह्मविचार हो। स्वाभाविक हो। र्स्फूरणाएं स्वभाविक बहे। ऐसे योगी ही हो। उपनिषदानुसार हो। समत्व बुद्धि वाले हो। ’’सुख दुःखे समे कृत्वा हो। ’’समः शत्रौ चमित्रेच ’’ हो। ’’सम सर्वेषु भूतेषु ’’ देखता हो ’’ सम पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीव्श्ररम्’’ (गीता 13/28)
सब ऐसा हो। स्वर्ग सा हो। आत्मवित हो। सुसंस्कृत हो। वैदिक शिक्षण हो। ऋषिकुल हो। स्वराज्य हो, मोक्ष सब प्राप्त करे। महात्मा महापुरूष अधिकाधिक आवे। सत्ययुग के बजारोर्पण क्रम-क्रम से हो कर उत्तम शान्ति का जैसा समय लाने में सहायक होना चाहिए।
(बोध. 35)
’’मेरी हिन्ददेवी के वीर पुत्र अवश्य ही अपने मूल स्वरूप की और दृष्टि फेकें यही मात्र सतयुग की गिनती में है।’’ (35) ’’सतयुग का गर्थ बन्धेगा।’’ (35) ’’---साक्षात् श्री कृष्ण जन्मेगे। उसे सतयुग का बालक ही समझना। ’’सत्’’ शब्द की कितनी मर्यादा बांधी जा सकती है - ऐसे समझ कर सतयुग के गर्भ का पोषण करो। दूसरे गर्भ की उपासना करो विचारो से निमन्त्रित करो। इस समय को निमन्त्रो। (बोध. 35)
’’इससे भी अधिक उच्च पद मोक्षपद जो उत्तमोत्तम है उसकी और तो लक्ष्य बिन्दु कर्म योग आचरित करते हुए अवश्य रखना है ’’ सत्ययुग के आने की राह देखते रहे। - उसी क्रिया के गर्भ पोषण करना कहा जाता है। (35) ’’बालक को ---- उत्तम संस्कृति वाले मार्ग पर जाने देना चाहिए। योग्य दिशा में भूल भूल हो, समझाकर निर्मूल करे।
कर्त्तव्य है। (35) सत्ययुग जड़ स्थूल रूप में होता अधिकाधिक चैतन्य होता जाता। बुद्धि द्वारा भी वह सत्य समझ में आने लगेगा। अति सूक्ष्म सत्य जीवन में व्यवहार में लावेगें। गुरूदेव ने वेदान्त और व्यवहार एक कर बताया ’’। जीकर बताया। अनुभव करवाया। भक्तों को आनन्द दिया। स्वराज्य के समय सहयोग हमारा कर्त्तव्य है सत्य की मर्यादा बुद्धि मे प्रभु दे। आगे सत और असत से परे है वह लक्ष्य है। मोक्ष से भी आगे परम तत्व लक्ष्य है। उपासना से दया से वह दर्शन देगा। गुरूदेव की दया से (36) गुरूदेव राम श्याम गोपाल दया करेगें। कल्याण करेगें। मार्ग प्रशस्त करेगे। उनका आर्शीवाद है। तीव्र भाव के बल से आज्ञा अनुरूप बनेगे। (36) सतयुग मांगो जहाँ गुरू सेवा एक मात्र हो। अनन्य शरणागति हो। ’’ध्यानमूलं सद्गुरूमूर्ति पूजामूलं सद्गुरूपदम् ’’ ’’सांसे सांसे रटू थारो नाम ’’ गुरूदेव की आज्ञा पालन में सेवा में, कार्यो में सतत लगे रहे। सेवा पूजा बन जाय। तब बाधाए नहीं रहती। पूर्णता आ जाती है। तन्मय हो जाता है। ’’आप स्वरूप ओडखामी ताप त्रिविध हर जो ’’ भेद नहीं रहता। द्वेत नहीं रहता। माया से परे हो जाता। गुरू अपना स्वरूप दे देते है। सेवा गुरूदेव की यही मुक्ति है। सब कर्म गुरूदेव के लिये ही हो जाते है। भक्त तो सेवा के लिये बार-बार प्रभु गुरूदेव के साथ आना चाहता है।
’’रहे जनम जनम थारो साथ’’ वह तो मांगता है ’’जब जब तू आवे साथ हमें लाना ’’ भगवान के साथ भक्त भी आते है। लीला करते। जगत की व्यवस्था करते। भक्तों को आनन्द देते। सेवा ही धर्म बन जाता। (37)
भक्ति में केवल गुरूदेव से प्रेम ही रहता है। हृदय बार बार भक्त का प्रेम से भर जाता है। आनन्द से उच्छाले खाने लगता है वही सतयुग है। प्रेम की परकाष्ठा है। गुरूदेव के आर्शीवाद से आध्यात्मिक और सर्वागीण सबकी उन्नति होती है। सफलता, सुख, नैतिकता आदि प्राप्त होती है। सतयुग जहाँ सब गुरूदेव को अर्पण करते है। गुरूदेव सदैव आगे तैयारी करते है। अनुभव होता रहे। उनके ध्यान में निरत रहे। उनकी शरण हो। आश्रित हो। मोह न हो। मोह व लेन देन से सम्बन्ध समझ आवे। सब प्रभु को माने। अपने को व्यवस्थापक माने।
सतयुग में मेरा पन न रहे। तब आनन्द आनन्द रहता है। सच्चा समर्पण, प्रपत्ति होने पर होवे। सम्पूर्ण व्यवहार भी आनन्द हो जावे। सब आनन्द देने आने लगते है। संयोग को सत्संग दृष्टि से देखने लगते है। (39) क्रियाएँ ब्रह्मकर्म बना लेते है। परमार्थ होने लगता है। जगत हिताय कर्म होने लगते है।
माया भक्त को सहायक बन जावे। गुरू भक्ति से श्रेष्ठ कर्म होते है। उच्च कर्म फल भाग्य बनकर आने लगता। सुख ही सुख रहता है। वहीं परमात्मा है। निशंक शरणागति रहती है। (40)
गुरूदेव ने इस मार्ग में निश्चित व निर्भय रहने का प्रभु ने आश्वासन दिया है। सब प्र्रभु का है। दृढ़ मान्यता होने पर प्रभु सर्वत्र विजय देते है। ’’मैं प्रभु गुरूदेव का हँू गुरूदेवे मेरे है ’’ विश्वास दृढ़ होता है वहाँ गुरूदेव राम श्याम गोपाल ही सर्व साधना के फल रूप है। ’’महिमा’’ जासू जानी गणराऊ उने उसे प्रभु स्वस्थ करते। उत्साही बनाते। और एकत्व अनुभव होता। ’’एको ब्रह्मो द्वितीयो नास्ति ’’का अनुभव होती है। (40-41) वहाँ उबते नही। व्यवहार को गुरू सेवा मानते है। प्रार्थना करते रहने से गुरूदेव दया करते है। सुख दुःख समे कृत्वा उसे भी प्रसाद मानते है। (42)
गुरूदेव अच्छे ही करते है एक आत्मा सर्वत्र देखते है। साकार वही है। निराकार वही। द्वेत भी अद्वेत भी वही है। दोनो एक दूसरे में है। वहाँ भक्त कर्म भोग में भी गुरूदेव प्रभुता देखता है। वहाँ ज्ञानी एक ही गुरूतत्व सब में देखे वह ज्ञानी। विज्ञानी दया से होता है। ’’होई ही वही जो राम रचि राखा’’ वे करते वही होता है। (43)
उथल पुथल शुभ है। भले के लिये है। ’’सर्व रूप गुरू सर्वदेव, सद्गुरू सर्वम् गुरूमयं जगत’’ सर्वव्यापकता, ’’व्यापक छो स्वामी।’’ सर्वात्म भाव ब्रह्म होता है। मुक्ति आसक्ति न होना ही है। यहाँ गुरूदेव के वचन पूर्ण सत्य है। पूरे होते है। निश्चित है। फर्ज कर्त्तव्य कर्म को मानते । गुरूदेव की कृपा से निष्काम कर्म प्राप्त होता है। वही सच्ची सेवा है। (43-44) गुरूदेव दया नीधि है, उदार है, अनुभवे। कार्यरूप वही है। प्रभु अर्पण कर्म कर दो। वही सेवा है।
प्रभु प्रेम रूप है। स्वयं है। ’’छिदन्ति हृदय ग्रन्थानी’’ निष्काम भक्ति से प्रभु गुरूदेव प्राप्त होते है। ज्ञान होता है। प्रेम, अनुराग उदय हो सच्ची भक्ति होती है।
वहाँ हृदय में गुरू का ध्यान करते है। साथ साथ जप होता है। ब्रह्म मूर्हत में वहाँ 3 घंटे का परिपक्व समाधि होती है। सिद्धान्त समझना गीता है। (44-46)
एकत्व गुरू से अनुभव करते है। तन्मय होते। जप, सत्संग, लीला चर्चा, महिमा कथन, आदि आदि होते है। सेवा भक्ति देते है। अद्वेत मे ले जाते है। गुरू के ध्यान से सब काम होते है। गुरूदेव के पास जाने के संकल्प मात्र से सर्वत्र शुभ होने लगता है।
’’ब्रह्मनिष्ठ गुरू शरणे जाता, अघढग नाखे निवारी ’’
’’न शोक भय चिन्ता न क्लेश कदी रोतो’’ ’’विश्व माही दीठा’’ ’’सर्वत्रं रलियावणो’’ लगने लगता है। ’’जीवमटी शिवथई गयो ’’ ये तो बहुत ’’ रूपारा है ’’ आगे विश्वनाथ भई कहते है ’’भक्त के द्वारा भगवान संसार का काम करते है।
गोपाल ने गोस्वामी दिल्ली को, आने पर वेतन का पूछा बोले पूरा नहीं होता होगा। दिल्ली जाने पर दोनों बार सब का वेतन वृद्धि हो गई। इस प्रकार भक्त के द्वारा संसार की व्यवस्था करते है। गोस्वामी से भरूच में गोपाल ने मकान का पूछा। दिल्ली जाने पर सस्ते मकान की स्कीम आई और किश्तो में। वह भी बहुत कम। इस प्रकार सबकी व्यवस्था करी। उनके आदेश सम्पूर्ण सृष्टि मानती। उनके भय से सब चल रहे है। सूर्य चन्द्र यम आदि। वेद व उपनिषद घोष करते है।
भक्तों के लिये गुरूदेव लिखते है ’’ प्रभु सेवा उठाते हो -- इस प्रकार की भेंट प्रभु के चरणों में बहुत ऊँची प्रकार की गिनी जाती है।’’ ऊँचे पात्र भक्त के लिये कहते ’’ तुम्हारे हृदय में अन्तर में इतनी श्रद्धा और प्रेम कैसे उद्भव हुआ यह भी एक ऊँची पात्रता का प्रमाण है। पात्र कब खिल उठते लिखते है - ’’ऊँचे पात्र कोई एक विक्षेपो के कारण अमुक समय अज्ञान दशा में रहकर सहज इशारे से अद्भुत खिल उठते है। ’’ गुरूदेव ऊँचे पात्रो के प्रेम को देखकर आनन्द विभोर हो जाते। वे स्वयं लिखते है ’’प्रेमी - शुद्ध प्रेमी - भक्तो को देखता हँू । उन्हें याद करता हँू उनके पत्र पढ़ता हँू। तब मेरे देह की स्थिति योगेश्वर की स्थिति के समान हो जाती है। इसका वर्णन अशक्य है ’’ पात्र को वे गुरूदेव स्वयं तैयार करते है। ’’ तैयारी तो अन्तर प्रदेश में इतनी होती रहती प्रसंग मिलते ही थोड़े ही समय में आध्यात्मिक जीवन बता सकोगें। आगे गुरूदेव लिखते है ’’ मांसिक बंधन को घारोें सब भूल सकते हैै।’’ आगे निश्चय की दृड़ता बताते’’ अन्तिम लक्ष्य को कभी भूलते नहीं हो।’’ अपने भक्तों ऊँचे पात्र से प्रेम में आकर बाते करते है। भेद नहीं रखते। मित्रवत रहते। उन्नति करते है। प्रशंसा करते। दे देते है। भक्त वैसे ही बनने लगते है। बनते है। सब कर्म प्रभु के लिये करते है। । 25।
अवतार भक्तों पर दया करके होते है। भक्तों के प्रेम के अधीन होकर गुरूदेव राम श्याम गोपाल भी साकार रूप मंे आरूढ़ हुए। गीता में स्पष्ट लिखा है। ’’परित्राणाय साधू नाम’’ भक्त के लिये आते है। भक्त को सताने वालों दुष्टो को दण्ड देते है। ’’ विनाशाय दुष्कृताम्’’
भक्तों के माध्यम से संसार का काम करते। अत्याचार मिटाते है और ’’धर्म की स्थापना करते। नियम लागू करते। रामकृष्ण ने पुरानी जड़ व्यवस्था को ध्वस्त किया। पुरातन व्यवस्था में दोष आया उसे समाप्त किया। छूआछूत जाती वाद, आदि आदि अनेंकों दुषित व्यवस्था विचार रहन-सहन, खान-पान बोल-चाल, आचार-विचार, ज्ञान-विज्ञान, धर्म-कर्म सब मेें सुधार किया। और भारत की कुण्डली जगाई। और अद्भूत परिवर्तन दु्रतगति से हुए। अपने भक्तों के माध्यम से समाज का काम किया। जो मान्यता एवं जीवन हजारों सालों से चले आ रहे नये वे बदलने लगे। आज हम बैठकर विचारों कि उस सौ पचास साल के समाज की और आज के समाज की तुलना करे तो हमें ज्ञान होगा। यह सब परिवर्तन इनती दु्रतगति से कैसे हुआ ?हमारे एक ही जीवनकाल में यह सब देखा है। इस प्रकार राम श्याम गोपाल ने भी भक्तोें के माध्यम से संसार की व्यवस्था की। पुरानी मान्यता विचार जीवन रहन-सहन खान-पिन बोल-चाल उठक बैठक, आचार विचार, धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान अदि आदि में परिवर्तन लाकर संसार का काम किया। लीला लीला में भक्तों को आनन्द दिया। भक्त के दुःख दूर हुए। वे तो ’’व्यापक छो स्वामी है।’’ गुरूदेव तो साक्षात् ब्रहा है। विभू व्यापक है ’’ वे जो काम करते है वे सारे ब्रह्माण्ड में लागू होते उन्हें आदेश सारी प्रकृति पालती है। इस प्रकार भक्तों की प्रार्थना से द्रवित होकर भक्तों के लिये वे काम करते है जो सारी दुनिया के काम हो जाते है। इसीलिये ’’सम्भवामि युगे युगे।’’ बार-बार संसार की व्यवस्था करन आते है। भक्त भी सब प्रभु को सोप देते। गुरू मय हो जाते ।
निडर होते। आश्रित होते। उन्हें जो मिला होता सब प्रभु सेवा लगता है। गुरूदेव कहते ऐसा भक्त मेरा हृदय है। (बोध. 25)
वे ’’ उन्हें प्राणों से भी प्यारे है ।’’ भक्त और भगवान एक दूसरे के लिये होते है। रामकृष्ण आये तो विवेकानन्द के लेकर आये। अवतार जब होता है तो लीला सहयोगी साथ आते है। भक्त साथ आते है। रामावतार में सब देवताओं ने भी पहले आकर लीला में सहयोग दिया। उन भक्तों को आनन्द दिया रावण आदि के अत्याचार व दुराचार को समाप्त किया। वैदिक व वेदान्त को लागू किया। धर्म की स्थापना की। अपने भक्तोें के माध्यम से जगत की व्यवस्था की। इसी प्रकार कृष्णावतार में प्रभु ने भक्तों को सुख व आनन्द दिया भक्तों द्वारा संसार का काम किया। धर्म, कर्त्तव्य, सिद्धान्त लागू किये। अध्यात्म जीवन दिया। राम श्याम गोपाल भी भक्तों को साथ लाये कुलाबेन को बाबजी ने कहा था अपने पिछले जन्म में साथ थे। अनेक भक्तों को पिछले जन्मों के नाम दिया। जैसे दत्त आदि। अनेक भक्त जो प्रभु के साथ में लीला सहयोगी थे उनके गुरूदेव ने नाम बताये। घासीभई के लादू महाराज रामकृष्ण के समय के बताये। मोटा को नरेन्द्र थान्दला में बताया। गोपाल को स्वयं को मीरा घनश्याम प्रभु ने बताया और बांसुरी से उनका आर्कषण प्रमाण दिया। उन्हें कृष्ण स्वरूप का आनन्द दिया। प्रमाण दिया। इस प्रकार अनेक प्रमाणों से भक्तों को साथ लेकर आये। प्रमाण दिये। इस जीवन मंे जीने में धर्म और अध्यात्म में जो कठिनाई आयी उन्हें दूर किया। और जीवन में सुधार किये। नवीन जीवन पद्धति लागू की। पुरानी व्यवस्था ध्वस्त की । नयी व्यवस्था लागू की । विवेकानन्द कहते कि दूसरा विवेकानन्द ही विवेकानन्द के कार्मो को समझ सकते। इस प्रकार घनश्याम प्रभु भी यही बात कहते। उनको कौन जान सकता। ’’जानत तुम्ही तुम्ही होई जाई ’’ ’’ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ ’’तुम्हे व विदित्वाति मृत्यु मेति’’ उनकी महिमा अनन्त है। लिखति यदि शारदा सर्वकालं पारनयाति।’’ इसीलिये ’’सम्भवामी युगे युगे’’ बार बार अवतार लेते है भक्ति से द्रवित होकर। ’’तदात्मानाम सृजाम्यहमं ’’ धर्मस्थानाय आते। जगत व्यवस्था के लिये अवतरित होते। भक्तों को आनन्द देनेे आते। दुःख दूर करते। लीला गुरूदेव ने भक्तों के साथ की आनन्द दिया। भक्तों के काम किये। भक्तों के माध्यम से संसार का काम किया। जो समय के साथ अनुभव में आवेगा। सतयुग के आने का वचन दिया। सत्यबुद्धि में आवेगा पर अपने समय पर आगे आने वाले परिवर्तन व समय का भी प्रभु ने स्पष्ट किया है। उन्होनें जो जो वचन दिये। भक्तों को वे सब पूरे होगे। और उन उन वचनों व संकल्पों के द्वारा संसार के शुभ कार्य होगे। नई व्यवस्था लागू होगी। गुरूदेव राम श्याम गोपाल ने विश्व ब्रह्माण्ड व संसार की जगत की सब व्यवस्था लागू कर दी। सब काम पूरे करके शरीर छोड़ा है। बोला की अब सब काम हो गये। पूछा था अब काम तो नहीं। अब कोई प्रश्न तो नहीं। जिन-जिन कामों के लिये आये वे सब काम पूरे किये। वे सब संकल्प पूरे किये। वे सब वचन दिये। उनके वचन झूठक होय नहीं। वे सब पूरे हो रहे है। पूरे होगेे। प्रकृति को उन्हें पूरा करना होगा। उनके आदेश से, भय से सब चलता है। चल रहा है। चलता रहेगा। अध्यात्म वेदान्त और व्यवहार एक होता जावेगा। सिद्धान्त जीवन में उतरते जावेगे। और सत्य जीवन में आता जावेगा। सत्य बुद्धि में आने लगेगा। आवेगा। सत्ययुग का गर्भ बंन्धेगा। सत्य युग आवेगा। पर गुरूदेव की इच्छानुसार संकल्पानुसार दया करेगें। भक्त के भावानुसार । गुरूदेव लिखते ’’भक्तों से मेरी तादात्मय द्वारा ही मै पूर्णता प्राप्त करता हँू ’’ (25) कैसी भक्तों पर दया । वे तो स्वयं पूर्ण है। भक्तों पर उनकी दया। उन्हें आगे करते है। ’’वे मुझे स्मरण रखे यही मैं चाहता हँू। ’’(25) ’’सब कर्मो को निशेषकर इति कर्तव्यता प्राप्त करने पर उन्हें अपने लिये कुछ करना होता ही नहीं ’’ (25) सब गुरूदेव स्वयं भक्तों के लिये करते। घनश्याम प्रभु कहते ’’तमे तो आनन्द करो’’ हँू तो सोयाला ने जगा लूँगा समय पर गोपाल ’’हँू तमारे माटा करू छू’’ भक्त भी सब प्रभु के लिये करते है। ’’प्रभु उनके सेवक बने’’ ’’अपनी शत्ता दे प्रभु’’ ’’भक्तों को सुख भोग कराते प्रभुता है।’’ ’’विश्व के महान दात्ता व उदारता बतावेगें।’’ इस विश्वास से भक्त लोग उनके पीछे-पीछे दौड़ते है। सचमुच में वह महान है। वह सब सर्व कुड़ा, कर्कट कचरा व हमारा अपने में ले लेता है। (25) ’’बदले और अमरत्व देता है।’’
पूण्य ले लेता है, और अचल भक्ति ले लेता है और अखण्ड आनन्द की बकशीस उन्हे देता है। भ्रमणा ले लेता है और ब्रह्मत्व उन्हें प्रदान करता है।(25) ऐसे वे गुरूदेव राम श्याम गोपाल है। सारे विश्व के जीव जिसमें चिरकाल शान्ति प्राप्त करते है। फिर भी उसमें कुछ भी कम नहीं होता अनेक युग बीतने पर भी जिसमें कुछ भी न्यूनाधिकता होती ही नहीं ऐसा प्रभु गुरूदेव राम श्याम गोपाल है। उसकी प्रभुता है। महानता है। अपार महिमा है। ’’सभी उस पर विश्वास करते है। जो चाहिये उसी से प्राप्त करते है। वह तो वास्तव में मूर्तिमन्त ईश्वर है। वे राम श्याम गापेाल है। जब वे साकार स्वरूप में आरूढ़ होने की रीति जाने तथा भक्तों के प्रभु की मुग्ध स्थिति का परिचय होती है। अनुभव हो सकता है। तभी वे अपने जीवन को धन्य कृतार्थ हुआ समझते है। इस प्रकार प्रभु भक्तों पर दया कर उनके माध्यम से जगत का काम करते है। लीलामय है। भक्त गुरूदेव की शक्ति से विश्व कल्याण के लिये पात्र बनकर दौड़ पड़ते है। ’’अग्रसर थई सहुनेदोरी जाता, सहुना हित मा तत्पर रहता। सहु ने पोता जेवा गणता, शुभ लक्षण शां शां देखाता।’’ ’’विश्व ज्योति अखण्ड देखाय-दीवो दुनियानो’’ शिष्य को सारा विश्व एक अखण्ड प्रकाशमय दिखता है। सारे विश्व का वह गुरूदेव की दया से गुरूदेव का काम करता है। विवेकानन्द ने रामकृष्ण के जगत हिताय काम किये। वेदान्त का प्रचार किया। में शिष्य गुरू की शक्ति के माध्यम से जगत का काम करते है। शिष्य में गुरू स्वयं रहते है। ’’घनश्याम प्रभु कहते है मैं तो हूँ तो एनामा रहिने ने तैयारी करू छू अन्तमा एने चाबी आपी दू छू’’ शिष्य ही गुरू की पहचान है।
यहाँ ’’नित्य शुद्धं चेतन स्वरूप है।’’ घनश्याम प्रभु ने भजन ’’ऊँ नित्य शुद्ध ऊँ कार हो तुम गुरूदेव को उनकी जगह चेतनय हो तुम गुरूदेव ’’ चेतन है। उनकी चेतनता ही सारी सृष्टि में व्याप्त है। ’’आ विश्वना अणु अणु में आप पोते ’’ ने आप एक अखिलेश महद् स्वरूपे।’’
इस मार्ग में ज्ञान को व्यवहार में लाया है। घनश्याम प्रभु कहते ’’ हँू तो शक्कर नो हल्वो वणावुने खाऊँ छँू।’’ वेदान्त को व्यवहार में लाया है। वेदान्त और व्यवहार गुरूदेव ने एक किया। ज्ञानी ता है ही विज्ञानी भी है। जीवन में उतरा है। उनका पूरा जीवन वेदान्त और व्यवहार एक कर दिया। केवल ब्रह्मनिष्ठ है। मंत्र दृष्टा ही नहीं।
स्वयं मंत्र सृष्टा है। पूरा जीवन सत्य स्वरूप है। ब्रह्म स्वरूप है।एक क्षण में लीन हो जाते घनश्याम प्रभु कहते ’’तमे पलक मारो एना पहला तो हँू लीन (ब्रह्ममा) थाई जाऊँ ।’’ जगत का व्यवहार करने नीचे आते। व्यवहार करने के बाद तुरन्त सब संस्कारो को लीन कर देते। समाप्त कर देते। और ब्रह्म में लीन हो जाते। ’’पानी पर की लकीर जेम।’’ उनका पन्द्रह आनी मन ब्रह्म में रहता। इसीलिये उनका व्यवहार भी ब्रह्म स्वरूप होता है। ब्रह्मकर्म होता है। ’’म्हारा राम ना वचनों मंे झूठक होय नहीं।’’ घनश्याम प्रभु कहते ’’हूँ तो मजाक मा भी झूठ नथी बोलूँ’’ उनके वचन है ’’बन्दूक नी गोली खाली जाय पर म्हारा वचन खाली नथी जाय।’’ उन्होनें जो कहा वही होता है। हो रहा है। होता रहेगा। उनके संकल्पानुसार सार सृष्टि को चलते रहना पड़ेगा। उनका आदेश अनुसार प्रकृति को चलना पड़ेगा। पालन करना पड़ेगा। उनके भय से सूर्यचन्द्र यम आदि सब गृह ऩक्षत्र आदि सब चल रहे है। अपना अपना काम कर रहे है। जो-जो वचन दिये भक्तों को वे पूरे निश्चित समय पर होगे। इस प्रकार भक्तों के माध्यम से भक्तों के द्वारा गुरूदेव जगत का काम करते। व्यवस्था जगत की करते। परिवर्तन जगत में करते। पुरानी जड़ अव्यवहारिक व्यवस्था को ध्वस्त करते। नयी व्यवस्था लागू की। जगत का हित भक्तों के माध्यम से भक्तों के द्वारा की। भक्तों दुःख दूर किये। ’’विनाशय दुष कृताम्’’ दुष्टों का दबन किया। सतयुग लाने का मर्गा प्रशस्त किया।
इस प्रकार भक्त के माध्यम से जगत के हितार्थ लोकल्यार्थ, परमार्थिक कर्म भक्तों से प्रभु करवाते है। ’’जीवमटी शिव थाई गयो’’ ’’ए गुण केम विसारे’’ घनश्याम प्रभु कहता ’’पारस ने पारस बणावू छँू।’’ भक्त को अपना स्वरूप दे देते। अपनी सामर्थ्य दे देते। पात्र बनाते। जगत हितार्थ उनके आदेश से वह करते है। सब भक्त उनका गुरूदेव का स्वरूप है। उनकी भक्ति व शक्ति और सामर्थ्य उनमें है। उन्हें आदेश जगत के काम का है वे करना है। आगे भी भक्तगण गुरूदेव के आदेश अनुसार गुरूदेव की महिमा व्यापक करते रहेगे। दीपावेगें
अपने गुरूदेव को। राम श्याम गोपाल को महिमा सारे विश्व में व्याप्त करेगे। उनके सिद्धान्तों को गुरूदेव के जीन को। गुरू के इस कर्म सन्यास मार्ग को प्रसार करेगे। ज्ञान निष्काम कर्म और भक्ति के इस मार्ग को दुनिया में फैलावेगे। प्रवृत्ति मार्ग का गृहस्थ में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। बतावेगे। सतयुग लानेे में ’’ तुम और हम ’’ उनका आदेश है। सतयुग आयेगा राम श्याम गोपाल का वचन है। आदेश है। आर्शीवाद है। संकल्प है। भक्तों के माध्यम से। शिष्यों के द्वारा। उनका आदेश अवतरित होगा। व्याप्त होगा। महिमा उनकी सर्वत्र दिग् दिग्न्त व्याप्त होने से कौन रोक सकता है। गुरूदेव का अवतरण के कई कारण है। उद्देश्य है। भक्तों की भक्ति सेविगलित होकर साकार रूप लिया। भक्तों के दुःख दूर किये भक्तों को आनन्द दिया। लीला की। लीला लीला में जगत की व्यवस्था की। नयी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया। संकल्प किये। आदेश दिये। सतयुग लाने के लिये तैयारी की। पात्रों को तैयार किये। आगे गोपाल कहते ’’बालको माँ संस्कार पडे छे।’’ मन्दिर, भक्त शिष्य आदि के द्वारा नयी पीढ़ी तैयार होती जायेगी। संस्कार अधिकाधिक संस्कार में पढेगे। घनश्याम प्रभु कहते ष्डल् ैम्स्थ् प्ै न्छप्न्म्त्ब्प्ज्ल्ष् सच में वे जगत में लाने वाले साक्षात् ब्रह्म ही है। अध्यात्म व धर्म इस मार्ग से उनकी पूजा से आवेगा। चेतना आवेगी। क्रमशः अधिक चेतनता आवेगी। ’’विचार स्फूरेगे वे स्वाभाविक होगे।’’ ’’स्फूरणाए स्वाभाविक होगी।’’ स्फूरणाओं का प्रवाह बहता रहे। ’’साम्यबुद्धि गिने जाते।’’ ’’वे प्रज्ञा है।’’ समृद्ध देश में धर्मग्रन्थी, न्यायशास्त्री, विचार अनुरूप शास़्त्र विधि प्रमाण से कार्य करने वाले जन्म लेता है। ’’वैदिक शिक्षण का प्रचार होगा’’ गुरूदेव का आदेश है ’’आत्मज्ञान होगा।’’’’सम्पूर्ण स्वतन्त्र ऋषिमुनि जन्मेगे’’ स्वतन्त्रता से भी अति उच्चपद मोक्ष जरूर प्राप्त करेगे। ’’कर्म योग कर बताने वाले गुरूदेव के आदेश से जन्म लेगें।’’ कलयुग में भी सतयुग का बीजारोर्पण होगा। उत्तम शान्ति का समय लाने में गुरूदेव के आदेश शिष्य भक्त सहायक होगे। स्वराज्यवादी मान्य क्रान्तियों हो ’’सतयुग का गर्भ बन्धेगा।’’ गुरूदेव के आदेश से भक्त मूल स्वरूप की ओर दृष्टि फेकेगे। दसमें अवतार है प्रभु। सतयुग की उपासना करेगे। निमन्त्रेगे। मोक्ष पद पर लक्ष्य रखेगे। ’’कलयुग में भी जमाना पहले जड़रूप से आवेगा। स्थूल रूप में होगा। फिर कुछ चेतन जुड़ेगा। फिर उसमें भी अधिक चेतन्य वाला प्रदेश होगा। अन्त में सत्य की सीमा बुद्धि द्वारा भी समझ में आवे ऐसा जमाना आवेगा। उसे लाने वाले तुम, और सभी महाकारण रूप (कारण के भी अति सूक्ष्म रूप ) बन सके या अपनी सन्ताने बन सके। यह तो निश्चित है। गुरूदेव का संकल्प है। आदेश प्रकृति को पालना होगा। हमें भक्तों को, शिष्यों को करना होगा। पूर्ण ही होगा। निश्चित होगा।
सत्य की मर्यादा बुद्धि में आवेगी। आदेश है। उससे परे ’’ सत अथवा असत जो मोक्ष से भी अधिक है। सत्पद धारण किया हुआ है। शिष्य और भक्त संत उसे लक्ष्य में रखेगे। उपासना करेगे। सूक्ष्म स्वरूप दिखेगा। गुढ़ अवस्था होगी। तद्रूप होगे। दीखेगे।
संतो का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है। जिसे स्पर्श करते उसे अपना जैसा बना लेते है। भगवत चिन्तन और भगवत सेवा करते करते अन्त में भगवान के अनन्य शरण हो जाता है। ’’मुक्ति भी सेवा को ही मानते है।’’ सब कर्म गुरूदेव परमात्मा नाम होते है। उनके कर्म संचित होवे। प्रारब्ध बने। वह भगवान जैसा भाग्यशाली पुरूषों के ही होते है। ’’सम्भवामी युगे युगे ’’ भगवत सेवार्थ प्रारब्ध लेकर अवतरित होते रहते है। भगवान का अवरण में भक्त लोग साथ ही होते है। वे अपने भक्तों के साथ अनेक लीलाएं करते है। जिससे विश्ववस्था करते है। वे प्रभु के सामर्थ का प्राप्त करते। गुरूदेव प्रभु की महिमा बढ़ाते है। प्रत्येक जीव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है। इस प्रकार भक्तों को माध्यम से प्रभु गुरूदेव की महिमा बढ़ाते है। प्रत्येक जीव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है। इस प्रकार भक्तों को माध्यम से प्रभु गुरूदेव जगत की व्यवस्था करते है। आदि आदि।
’’आगे पूज्य विश्वनाथ भई कहते है। ’’भक्त द्वारा भगवान संसार का काम करते है। वह सब का पुण्य भक्त के खाते में जाता है।’’ भक्त के प्रभु गुरूदेव अधीन हो जावे।’’ बन्धई जाये जगत को नाथ काचा सूतर केरा साथणे। भक्त के प्रेम में गुरूदेव स्वयं भगवान बंध जाते है। ’’छछिया भरी छाछ पर नचावे।’’ गोपियाँ उन्हें नचाती है उनके लीला सहयोगी बनती। रामावतार में दशरथ को शल्या आदि आदि भक्तों ने अधीन अवतार लिया। सुख दिया। सब काम भक्तोें के किये। सब इच्छाएँ पूर्ण की। सब इच्छाओं के पूर्ण करने वाले गुरूदेव राम है। बोधवाणी में लिखा है। रावणादि दुष्टों का दलन किया भक्तों की रक्षा की। जगत से अन्याय दूर किया। निर्मल समाज की रचना की। वेद ब्राह्मण व साधू संतो व संम्य समाज की स्थापना की। राम राज्य की स्थापना की ।
प्रभु गुरूदेव भक्तों को साथ लाते। लीला सहयोगी बनाते। भक्तों के सब काम करते। सब इच्छाएं पूरी करते। पूण्य में यहाँ तक दे देते ’’अपना स्वरूप दे देते ’’ (बोध.) अपनी शक्ति दे देते। अपना जैसा बनाते । भक्त भी जगत के काम करने लगता है। इस प्रकार भक्त के माध्यम से भगवान जगत का कल्याण करते है। वह पूण्य भक्त के खाते में जाता है। वह भगवत स्वरूप हो जाता। भक्ति मुक्ति सब उसे प्राप्त होती है। पर वह तो भगवान की सेवा को ही मोक्ष से ’’बडकर ’’मानता है। ’’वह तो मांगता है। ’’जब जब तू आवे साथ हमें लाना ’’ आगे वह गाता है। मोक्ष नहीं चाहता ’’रहे जन्म जन्म तारो साथ ’’
कृष्णावतार में प्रभु ने लीला की भक्तों को साथ लाये और जगत की व्यवस्था की। बदले में गीता ज्ञान दिया। दिव्य दर्शन दिया। विराट दर्शन दिये। विजय दी। सब भक्तों के काम किये। जन-जन को शोक से भय से उबारा। क्लेव्यता से उभारा। देह व आत्मा का अन्तर दिखाया। सत्य की प्रतिष्ठा की। आत्म ज्ञान दिया। गुण बताये। धर्म को प्रभु ने आलोकित किया। कर्त्तव्य मार्ग प्रशस्त किया। (गीता ) निस्त्रेगुण्यो का कहा’’ ’’आत्मवान भव’’ का आर्शीवचन कहे।’’ ’’कर्मण्येवाधिका रस्ते’’ मा फलेषु’’ कदचन सकाम न करने का कहा। ’’समत्व बुद्धि’’ से कर्म करने का उपदेश दिया। स्थिर प्रज्ञ होकर रहने का कहा। विगतस्पृह मत्पर, आदि आदि शिष्य का देते है। गुरूदेव उसे देते। ’’निर्भयः निरंहकार, शान्ति देते है। (गीता) सहयज्ञ करता है। प्रसाद ही खाता है।
’’अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्यपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। ’’
(गीता 9/22)
प्रभु गुरूदेव भक्त का योगक्षंम स्वयं वहन करते है।
’’पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्तत्युपहृतमश्रामि प्रयतात्मनः ।। ’’
(गीता 9/26)
भक्त का सब कुछ प्रभु गुरूदेव साकार रूप धारण कर प्रेम पूर्वक ग्रहण करते है।
’’कर्मबन्धनैः मोक्ष्य से ’’ व मुक्ति देते है। उसे गुरूदेव प्रभंवतिधर्मात्मा बनाते है।
और उसे ’’शाश्वच्छान्तिं निगच्छति’’ गीता 9/31 शक्ति देते। और उसे पापी को भी शरण देते। उसे परम शान्ति देते है।
उसे ’’मन्मना’’ बनाते। ’’मद्भक्तो’’ भक्त बनाते।
’’युक्त्वैवमात्मानं’’ अपने में मिलाते गीता 9/34
’’म्हारो भक्त बनी ने रे तो एने बाथ भरी लेतो। ’’ अपनी महिमा व प्रभाव भक्त को समझाते। तत्वज्ञ बनाते। सब भाव उन्ही से उत्पन्न बताते वे आदि है सनकादि के भी। एश्वर्य व विभूति के दर्शन देतेे। वे जगत के कारण है। सब उनमें ही हैै। उन्हे ’’भजन्ते ’’ भजते है। उनकी ’’मच्चिता ’’मदत प्राणा होते है। प्रभु गुरूदेव भक्तों के हृदय में रहकर उनको आगे बढ़ाते है। घनश्याम प्रभु कहते ’’ भक्त के अन्दर अन्दर तैयारी करता हँू और अन्त में चाबी उसे दे देता हँू ’’गीता में प्रभु कहते ’’ भक्तों पर अनुग्रह करते है। उनके अन्तः करण में रहते।है। अज्ञान अंधकार दूर करते है। तत्व ज्ञान देते है। गुरू प्रभु ब्रह्म है। ’’आदि देव है।’’ अजन्मा है। विशुद्ध है। भक्त को स्वयं बताते है। भक्त को ’’भूतभावनं’’ ’’भूतेश’’ देवदेव जगत्पते ’’ रूप दिखाते है। प्रमाण देते है। ’’घनश्याम प्रभु कहते ’’आंखो की किरकियो फेरे तेम जग फेरवूं ’’ घनश्याम प्रभु कहते ’’तमे तो म्हारा अंश छो’’ ’’बीजो कौन छे’’ अपनी लीलाओं से भक्त को अपना स्वरूप दिखाया बताया। समझाया स्वयं श्री मुख से कहा। भक्तों को अनुभव है।वे तो लीला सहयोगी है। उनके माध्यम से जगत की व्यवस्था की। वह पूण्य अनेक रूप में भक्तों को सदैव सब जन्मों में मिला और मिलता रहेगा। उनके स्वयं के सिवाय कौन उनको और उनके काम को समझ सकता। भक्तो को प्र्रभु समझाते है।
’’जानत सोई जेही देही जनाई
जानत तुम्ही होई जाई ’’
’’ब्रह्मविद ब्रह्मेवभवति ’’ (वेद)
गीता में प्रभु कहते-
’’वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्मात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।’’ (गीता 10/16)
केवल गुरूदेव ही अपना स्वरूप कह सकते। व्यापकता को कौन जान सकता। सबके हृदय में है। आत्मा है। ऊँ कार रूप है। ’’छलयताम’’ छलरूप भी है। नमः तस्कराय। गुरूदेव कहते सेठों को ’’तमे डाल डाल हू पातपात’’ आगे कहते ’’हँू चोरो नो बाप चोर’’ अपनो भूमा स्वरूप समझाते। इस जगत को ’’एकाशेन’’ एक अंश से धारण कर स्थित है। (गीता 10) भक्त पर दया कर अपना विराट रूप अर्जुन को दिखाया। अन्यय शक्ति से तत्व से जाने जाते है। प्रत्यक्ष होते है। और एक हो जाते है। ’’तन्मय’’ हो जाते। ’’एकमेव’’ हो जाते है।
गुरूबह्म भक्त को सयंम देते। भक्ति देते। ज्ञान देते। सेवा देते। मुक्ति देते। अपना ’’सर्वत्रगम’’ ’’ध्रुव’’ अचल ’’अत्युक्त’’ अक्षरं स्वरूप समझाते। समबुद्धि देते। अनन्य योग देते। तारते ’’समद्वतो
है। मन बुद्धि प्रभु में लगाती है। गुरूदेव कहते ’’हँू तो एनो मन लेलू छँू’’ अभ्यास व वैराग्य साधन दिये। कर्म प्रभु के लिये ही होने लगते है। ’’सर्वकर्मफल त्यागम् ’’ करातेे। ’’मयि अर्पित मनोबुद्धि’’ बनाते। वह’’हर्षाभर्षनयो द्वे मैं र्मुक्त’’हो जाता है। ’’अनपेक्ष
’’ शुचिर्दक्ष’’ उदीसानो ’’गतव्यथ’’ भक्त बन जाता है। व सर्वइच्छा रहित हो जाता है। ’’ न कोक्षति संगविवर्जित’’ न जाता है। वे भक्त प्रभु के ’’भक्स्तेअतीव में प्रिया’’ प्रभु गुरूदउेव देते ’’मयी अनन्य योगेन’’ और अव्यभिचारीणी भक्ति एवं ज्ञान अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वम, तत्वज्ञानार्थ दर्शनम आदि। ज्ञान जिससे परमानन्द हो। और उसके ’’सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ’’ उसके चेतन रूप भक्त को दर्शाता है। सत्व रूप अनादित्म सर्वत्र पाणिपाद, नेत्र, सिर मुरव, श्रोत्र व्यापकत्व, अन्तर्यामित्व, पद्म पत्र विम्भासी है। अविभक्त है। अखण्ड है। गगन सद्वश है। ब्रह्मा विष्णु और महेश भी वही है। परम ज्योति है। वे कहते ’’ज्ञान गम्य ’’ है। गोपाल कहते है। ’’सत्य जाहीर थाय पर एनामे’’ पत्रांे में सत्य भक्तों की बुद्धि में आवे ऐसा समय आवेगा। सतयुग आवेगा। गुरूदेव प्रभु ने बदले में भक्तों सब कुछ दे दिया। भर्ताभोक्ता माहेश्वर परमात्मा रूप भक्त को अनुभव कराते है। मृत्यु लोक मंे भी अमर ’’सयं सर्वेषु भूतेषु’’ को भक्त ही दिखाते है। अमर ’’समंसर्वेषुभूतेष’’ को भक्त हरि दिखाते है अमर कर देते है। उसे ’’सम दुःख सुखः’’ निन्दा स्तूर्ति,मानापमान यो ही सर्वारम्भ परित्यागी होता है। ’’ब्रह्मंभूयाय’’ होता है।
भक्त को ज्ञान और वैराग्य से संसार माया को काटना सिखाते है। गुरू नारायण के ’’प्रप्रद्ये’’ शरण होेते है। उसे अध्यात्म नित्या’’ बनाते। शरण देते। परम पद देते है। जीव अंश है। घनश्याम प्रभु कहते ’’तुम सब मेरे अंश हो प्यारे।’’ ’’मैं तुमारे लिये तो हूँ प्यारे।’’ भक्त को ज्ञानचक्षुषः देते है। सूर्यचन्द्र सबको गुरूदेव प्रकाशित करते दिखाते है। मोटा विश्वनाथ भई को डेरोल स्टेशन पर सूर्य ऊँ के दर्शन हुए। गोपाल मन्दिर झाबुआ में वही केन्द्र में है। वे पृथ्वी को धारण करते है। वे चन्द्रमा बनकर अमृत बरसाते है। वे वैश्वानर अग्नि होकर पचाते है। वे सबके हृदय में है। वेद स्मृति आदि उनके ही गुण गाते है। वे पुरूषोत्तम है। शिष्य को अभय करते । सत्व शुद्ध करते। ज्ञानयोग देते। उसे, दान, यज्ञ, स्वाध्याय, तपः अर्जित करवाते। अहिंसा, सत्य, अक्रोध त्याग शान्ति, दया, तेज क्षमा, धृति, शौचम् अद्रोह अभिमान रहित आदि गुण देते है। शास्त्रविधि से शिष्य को तैयार करते है। जिस प्रकार काली ने रामकृष्ण को शास्त्र ज्ञान दिया। शरीर तप वाणीतप, मनः तप करवाते है सात्विक दमादि क्रियाएं करवाते है। यज्ञ तप और दान करवाते है। करतापन नहीं रहने देते। सिद्धि प्राप्त अपने कर्मो से करते है। स्वेे स्वे कर्मण्य भिरत रहते है। प्रसन्नात्मा रहते है सब में गुरूदेव के दर्शन करते है। सब कर्म मन से गुरूदेव अर्पण करता चलता है। ’’पत्र में लिखा’’ सर्वापण करवा थी सब अपना हो जाता है। घनश्याम प्रभु कहते ’’ तमे तमारी जिन्दगी हमने सोपीं दी तो फिकर सूँ।’’ यानी ’’फिकर क्या।’’ क्या पत्र में पुरूषार्थ बताया।
’’मन से वचन से कर्म से सब गुरूदेव परमात्मा को अर्पण करते जाना ही पुरूषार्थ है इस मार्ग में ’’ (बोध.)
उसे प्रभु शाश्वत पद देते है -
’’ईश्वर सर्वभूतानां हृदेशअर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’’ (गीता 18/59)
उसे सब में दिखते और सब को चला रहे
गुरुदेव राम घनश्याम तीनों ने घोष व प्रमाणित किया कि’’ सद्गुरु ही परंब्रह्म है । ’’उन्हीं का पूजन करना आदि’’। उत्तम पुरुष वह जो’’ अनेक विषय भोगते किसी से ममत्व नहीं रखता । ’’अभ्यास में पुनरावृत्ति आवश्यक है। लिखते’’ अनेक बार एक ही क्रिया करने में आवे विचार स्फुरे वे स्वाभाविक होगे। और ’’क्रियाऐं भी स्वाभाविक होगी।’’ स्फूर्णाए भी स्वाभाविक होगी । फिर ’’योग क्रियाऐं भी स्वाभाविक होगी।’’स्फूर्णाए भी स्वाभाविक होगी । फिर ’’योग क्रिया आवश्यक नहीं’’। (बोधवाणी)
ऐसे मनुष्य साम्यबुद्धिक बुद्धिमान होते । उनके विचार उपनिषदों अनुरूप होते।’’ वे प्रज्ञावान है। उनकी कृति आत्मवित की होती । वह देश सुसंस्कृत और समृद्ध होता।’’ वहाँ अवतरण होता है लिखते’’ कर्मयोग कर बताने वाल्ो कर्मयोगियों को ही प्रकृति के आदेश के अधीन होकर जन्म ल्ोना पड़ता है। (बोधवाणी)
’’आगे सतयुग के आगमन पर लिखते कलयुग’’ के दिन पूरे होने तक लिखते’’ सतःयुग पुनः स्थापित होगा’’ हिन्द माता तेरे कैसे-कैसे रत्न उन्हें कली की अधिभौतिकी गुणों में जाकर रहना पड़ा । ’’कलयुग में सतयुग का बीजारोपण क्रम-क्रम- उत्तम शान्ति का समय जैसा समय लाने में सहायक होना चाहिए। ’’साक्षात् कृष्ण जन्मेगे । सत की मर्यादा बाँध्ोंगे।’’ वे ही सत है। (बोधवाणी) रामश्याम गोपाल ही सत्य है । वहीं होगा जो वे चाहेगे । कहेगे । अन्यथा हो ही नहीं सकता । पूरा जीवन प्रमाण है । ’’तुझ सत्ता बिन पत्र्ा न हाल्ो । उनकी लीलाएँ है । वचन है। लिखते उसे बुलाओ सत्ययुग की उपासना करो।’’ निमन्त्र्ाो । निमन्त्र्ाो । ’’उच्चपद-मोक्षपद तो लक्ष्य बिन्दु को और कर्म योग आचरित करते हुए अवश्य रखना ।’’सत्ययुग की राह देखते रहो-उसकी क्रिया को गर्भ पोषण करना कहा जायेगा । यही नहीं इसके आगे लिखते’’ ऐसा सत अथवा असत है और वह मोक्ष से भी अधिक उच्चपद धारण किया हुआ है । उस और लक्ष्य उसकी उपासना है। उपासना से तत् स्वरूप दिखाई देवे ।’’(बोधवाणी) गुरुदेव भक्त में उस स्थिति में देखना चाहते । ल्ो जाते है । परम सत्य तो गुरुदेव ही है । जहाँ कृष्ण योगेश्वर और धनुर्धर पार्थ वहीं विजय है । उन सतगुरु के चिन्तन से उनका स्वरूप सामर्थ्य, ऐश्वर्य अध्यात्म सब भक्त में आता है । दे देते । वे साकार ब्रह्मा है । भक्तों पर द्रवित हो आनन्द देने आते और जगत के दुराचार का विनाश करते । सुख, शान्ति, आनन्द धर्म आदि को स्थापित करते ।
प्रस्तुत पुस्तक में सतयुग संतो के संकल्प से क्रमशः चेतनता वृद्धि के साथ आ गया है । आनन्द वृद्धि हो रही है । बाबजी ने कहा’’ ऐसा समय आवेगा । (बोधवाणी) सभी प्रकार के संतों का अवतरण हो रहा है । सब विधाए अपने पूर्णत्व की ओर है । वचन, क्रिया संकल्प रामश्याम, गोपाल व ब्रह्म ज्ञानियों के व ब्रह्मनिष्ठ के ही सत्य है । वे सूक्ष्म से स्थूल में क्रमशः आते है । बाबजी ने कहा ’’संतों की पार्लियामेन्ट है वे करते वही सब यहाँ होता।’’ वही हो रहा है ।
ताराबेन और कनुभाई का कहना है-पुनरावृत्ति व निरासता से उपेक्षा होती । बाबजी ने कहाँ भक्ति में पुनरावृत्ति दोष नहीं’’ बार-बार वे ही लीला चिन्तन करते । आज्ञा पालते । पूजा करते । गुरु के शब्दों का चिन्तन मनन करते । उन्हीं का मन्थन करते । उनके ब्रह्म वाक्य वेद है । उनकी हजारों किरण्ो हैं । हम तो एक को भी नहीं समझ पाते । जितनी बार उनको शब्दों को चिन्तन करे उतने नये ज्ञान तत्व अनुभूत होते । अनन्त में से अनन्त निकाला तो अनन्त है । बार-बार हम गुरुदेव के साथ शाóों को वेद उपनिषद का बार-बार प्रचार कर हरि नाम से जगत का उद्धार करना चाहते । पुनरावृत्ति बार-बार होती रहे यही चाहते ’’यथापूर्व कल्पयत’’ ’’वेद के अनुसार गुरु ब्रह्म बार-बार वैसी की वैसी सृष्टि करते । पुनरावृत्ति दोष नहीं माना जाता । बार-बार एक ही प्रकार की क्रियाएँ अभ्यास व वैराग्य बल से योग से भी और भक्ति में भी पार लगाने के साधन है ।
उपेक्षा के कारण सद्कर्म नहीं छोड़े जाते । अधिक रुचिकर बनाने का प्रयत्न करते । और रुचि उत्पन्न करने के लिये सत्य गुरुदेव से प्रार्थना कर करते है ।
दोष सब मेरे है । गुण सब गुरुदेव के । मोटा विश्वनाथ भई को दर्शाए सिद्धान्तों के अनुसार बाबजी की लीला गुरुदेव के वचन शाó प्रमाण से ब्रह्मनिष्ठ गुरुदेव साक्षात ब्रह्म है। सत्य है । बताने का प्रयत्न गुरुदेव की दया से किया । दोषों के लिये विद्धवजन क्षमा करेंगे व तत्व की और दृष्टि रख्ोगें । क्षमा, प्रार्थना के साथ, सद्गुरु देवराम व घनश्याम व गोपाल के चरणों में अर्पण ।
दिनांक 10/11/88
वार गुरूवार को मोटा विष्वनाथ भई से सत्संग चर्चा में कहा -
’’सतयुग को प्रार्थो ’’सतयुग की मांग करो ’’ गुरूदेव ने लिखा ।
’’और तब दसवीं बार महान ईष्वर अवतार साक्षात् श्री कृष्ण भगवान जन्मेगें। उसे सतयुग का बालक ही समझना। जन्म लिया वे सत शब्द की कितनी मर्यादा बांधी जा सकती उसका विचार करना चाहिए। इस प्रकार इस जमाने का फतेमन्द होना इसमें भी एक कुदरती कारण है। ऐसा समझकर सतयुग के गर्भ को निमंत्रो ! निमन्त्रो ! (बोध. 35)
आगे गुरूदेव लिखते है ’’इतना अवश्य याद रखना कि इस प्रकार के स्वराज्य का माध्यम पद ढूँढते हुए उसी में ललचाना नहीं है। (बोध. 35)
आगे फिर लिखते है ’’ इससे भी अधिक मोक्ष पद जो कि उत्तमोत्तम है, उसकी ओर तो लक्ष्य बिन्दु कर्म योग आचरित करते हुए अवश्य रखना है ’’ (बोध. 35) आगे गुरूदेव आदेश देते है करने को ’’सत्य के युग के आने की राह देखते रहो - उसी क्रिया को गर्भ पोषण करना कहा जायेगा।’’ (बोध. 35)
सतयुग जहां हो। शिव संकल्प हो। ज्ञान हो। आत्मज्ञान हो। शिवोऽम। तत्वरूप। अध्यात्म ज्ञान रूप। (बोध.) सत्संग हो। स्वस्फूर्त विचार हो। जो वेद उपनिषद् से मेल खाते हो। सतयुग निन्मत्रो विचार लोकानुकूल हो। विश्व मान्य हो। नित्य तत्व वस्तु प्राप्त कर्म सतयुग में हो। सतयुग अन्तर का हो। आन्तरिक हो। बाहृय न रहे। ’’अन्तर’’ मय हो। न सुख न दुःख। (बोध.)
तर्क: बुद्धि न रहे। केवल अन्तर में रहे। जागृत रहे। चेतन रहे। सतयुग जहाँ आसक्ति न हो। समानता हो। केवल परम तत्व ही लक्ष्य हो। सदकर्म ही हो। निष्काम कर्म हो। प्रभु समर्पित कर्म हो। सत्य रूप कर्म हो। सत्य रूप कर्म हो। नेत्र जहाँ ब्रह्मरन्घ्र में हो। संकीर्णता न हो उदार मना हो। ऐसा सतयुग निमन्त्रो । सर्वे भवन्तु सुखिनः हो। गुरूदेव राम श्याम गोपाल में निष्ठा हो। उनमें ब्रह्मभाव दृढ़ हो। गुरूदेव में अनन्य शरणागति हो। सब कुछ गुरूदेव को अर्पण बुद्धि हो। जहाँ राम श्याम गोपाल को जीवन अर्पण कर दिया हो। ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरूदेव राम श्याम गोपाल ही ब्रह्म है। सिद्धान्त रूप है। प्रेम रूप है। वे सत्संग से ही जाने जाते है। ज्ञान में जहाँ बुद्धि की व्यापकता हो। जहाँ पूर्ण गुरूदेव की शरणागति का दृढ़ निश्चय हो। जहाँ सतयुग में सत्य को अनुभव हो। (बोध. 2-3)
गुरूदेव के प्रति अटूट प्रेम हो। तेल धारावत ।
सतयुग जहाँ राम श्याम गोपाल को अपनी भक्ति से भक्ताधीन कर ले। जहाँ तेजस्विता हो। अनुभवी ब्रह्मनिष्ठ साक्षात् गुरूब्रह्म की शरण हो जावे। प्र्रसन्न करे। पारस गुरूदेव रूप ने शिष्य को भी पारस बनाने का वचन दिया है। अपना जैसा बनाते। आपने सब देकर। वे क्रीड़ा भ्रमर एक झटके में बनता है उसी प्रकार भक्त जीव को एक झटके में अपना स्वरूप दे देते है। ऐसे सतयुग की प्रार्थना करो जहाँ सम्पूर्ण वैराग्य हो। (5) आत्म तत्व के प्रकाश निर्विकल्प में रहकर व्यवहारिक वेदान्त हो। आनन्दमय हो। शान्ति हो। वैराग्यवान से आनन्द मिलता है। वे अनासक्त व्यवहार करते हो। (6) सतयुग की प्रार्थना करो। ऐसा दयामय हो। कृपा हो। मित्र भाव हो। संतोष हो। आनन्द हो। निस्वार्थ हो। सुविचार हो। ब्रह्मविचार हो। जीवन सत्कार्य में संलग्न हो। दुःख में सहायक हो। सहानुभूति हो। प्रेम युक्त जीवन हो। शान्ति चित्त व प्रभु के व प्रकृति के कार्यो की समझ हो। (7) प्रणव गायत्री की साधना में निरत हो। समाधि सतत हो। स्वतन्त्र स्वस्फूर्त शुभ विचार युक्त जन हो। सुविचार सिद्ध जन हो। ज्ञानी जन हो। सुविचार-योग सिद्ध क्रिया हो। (8-9) सतत जप ने निरत जन हो ऐसा सतयुग निमंत्रो। एक भी क्षण प्रभु के स्मरण बिना न जाय। ’’सांसे सासे रटू थारो नाम’’ अजपा जप गुरूदेव से प्राप्त हो। सब से प्रेम हो व सम्मान हो। संस्कार युक्त हो। क्षमा सरलता, गुरू भक्ति, विवेक, स्थिरता, वैराग्य निष्काम कर्म आदि योग युक्त जीव न हो। (9-10)
राम श्याम गोपाल के समान ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी गुरूदेव हो। पात्र अनुसार उपदेश देते हे। भेद भाव न करे। द्वेष न करें। शुद्ध चित्त में प्रकाशित होते हो। दयाकर भावानुसार प्राप्य हो। ’’श्याम ना वचनो मां झूठक होय नहीं ।’’ मजाक में भी जिनके वचन झूठ न होते हो। उनके कर्म ब्रह्ममय हो। ब्रह्मकर्म हो। क्रोध भी जन कल्याण के लिये हो। इच्छा तृष्णा न हो। ’’ न सोचती न कांक्षति हो।’’
’’आत्मवत सर्वभूतेषु’’ देखते हो। ’’ एक ही आत्मा सब में रम रही है।’’ सिद्ध किया हो। प्रारब्ध अधिन जो नहीं पर बताते हो। सीखाते है। आलस दूर करते। अनासक्ती देते हो। राम श्याम गोपाल ही सर्वकर्म फलरूप है। ऐसी बुद्धि दे। ऐसी श्रद्धा दे। ऐसा विश्वास दे। निष्ठा दे। ’’ध्यान मूलं सद्गुरूमूर्ति ’’उनका ही ध्यान करते हो। पूजा उन गुरू के चरण कमल की हो। उनकी आज्ञा पालन ही सर्वोपरी हो। शिष्य से जगत कल्यार्थ कार्य करवाते । पारमार्थिक कार्य करवाते । महान कार्य करवाते। सन्मार्ग पर चलाते। गृहस्थ में अपने कर्तव्य का निर्वाह करते अध्यात्म में आगे बढ़ाते। समझ देते। ज्ञान देते। वैदिक अनुसरण करवाते। भक्ति देते। ज्ञान देते। कृतकृत्य करते। (11-12) जिज्ञासु बनाते। सतयुग जहाँ गुरूदेव की परम दया हो। वे शिष्य पर सब भक्तों पर दया करे। किये शुभ कर्मो व साधनों पर उदारता दिखाते व आगे बढ़ाते है। सर्वत्र विजय देते है।
गुरूदेव राम श्याम घनश्याम से ऐसे सतयुग की मांग करो, जहाँ गुरूदेव की दया से दिव्य आनन्द, में अध्यात्म में देह सुध न रहे। गुरूदेव से अभिन्न अनुभव करे। अनेक विश्व अपने में बनते हो।् आनन्द ही रहे। सदा आनन्द ही रहे। चतुर्दिश उन्नति होवे। सतयुग जहां ब्रह्मनिष्ठ गुरूदेव के अमृत वचन मंत्र हो। स्वप्न रहे। जहाँ दृष्टा मात्र रहे। वहाँ कोई कर्म न रहे। सत्व ही हो। सत्य ही हो। दूसरा कोई न हो। ’’तत्वमसि ’’ आदि सिद्धान्त सिद्ध गुरू की दया से हो। व्यापकता व अद्धेत सिद्ध कर सफल हो। ’’अखिल ब्रह्माण्ड माँ एक तू ही हरि’’ सब जगह वही है। अनुभव हो। ’’एको ब्रह्मो द्वितीयो नास्ती’’ का उनकी दया से अनुभव हो। गुरूदेव की उपासना हो। आत्मानुभव हो। जहाँ सत्संग हो। ज्ञान ध्यान समाधि आदि हो। अनुभवी बने। (बोध. 12-13-14)
’’आ विश्वना अणु अणु माही आप पोते ने आप एक अखिलेश महद्स्वरूपे।’’ यह ज्ञान दृढ़ हो। ’’सर्व रूप गुरू सर्वमयं गुरू मयं जगत ’’ का अनुभव जहाँ हो उस सतयुग को बुलाओ। स्थापित करो। पवित्र गुुरूदेव का स्मरण करो। सतत जप करो। ’’स्फुरण रूपी स्मरण उत्तरोत्तर बढ़ता जाता है। इसे ही स्मरण कहते है। ऐसा स्मरण अनन्त हौ। स्मरणकार अनन्त है। और यही स्मरण है। (बोध. 14)
उस सतयुग में साधक के हृदय में प्रकाश प्रकाश अनुभव होता है। आनन्द अखण्ड रहता है। स्वरूपानुसंधान होता है। आत्म साक्षात्कार होता है सतयुग जहाँ वेदान्त और व्यवहार उनका एक होता है। वेद पठन पाठन होता है। विद्वान पण्डित होते हो। सद्गुरूदेव सुविद्या देते हो। साधक व भक्त साम्यबुद्धि से समझते हो। निष्काम होते। निर्वेर होते। लोक कल्याण एवं पारमार्थिक कार्य करते है। गुरूदेव प्रेम से उनके हृदय में रहते है। शान्त चित्त होते जन। सब जगह गुरूदेव के दर्शन हो। ’’ जाँ देखूत्याँ तमे उभा ’’ म्हारा पार पड़्या मन शुभा’’ सिद्ध होता है। (बोध .12 से 15) प्रसन्न प्रसन्न जन रहते है।
सच्ची स्वतंत्रता, सच्चा स्फूरण, और स्मरण हो। मुक्ति की इच्छा से गुरू की शरण जाते है। वेदान्त अध्ययन हो। स्मरण, जप, ध्यान आदि से ’’यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे ’’ का अनुभव होता है। गुरूदेव ही राम प्रभु ही सब इच्छाओ की पूर्ति के नीधि है। (16) जहाँ गुरूदेव की दया से आत्मानुभव होता। सब क्रियाएँ सत्य होती है। सब उन क्रिया से सहमत होते है। एक ही तत्व शेष रह जाता। ’’नैतिनैति’’ करते वही एक मात्र रह जाता है। वही सब कुछ बना अनुभव होता है (17)
भक्त प्रेम में विहृल होकर प्रेमाश्रु से आश्रुपात होता है। ’’कर कपोल भये कारे। ’’उर बीच बहे पनाले ’’ ऐसी अवस्था होती है। गोपाल पूजा करने, आनन्द में रहने, संसार के संस्कार न रखे और जप करने व निड़र रहने का कहते है। (19)
’’गुरूदेव बुद्धि रूप में बिराजे है। सात्विक अभिमान के पार वे ब्रह्म तू ही है। अनुभव गुरूदेव देते है। सत् असत् से परे उन गुरूदेव को जहाँ समबुद्धि द्वारा जाना जाता हो। वह निर्भय, अमृत, जग पालन करता ’’व्यापक छो स्वामी’’ हो जाता है।
सत्ययुग में प्रत्येक कर्म सत्य मय हो जाते। ब्रह्म कर्म हो जाते। बुद्धि और तर्क नहीं रहता। कर्म सतरूप हो जावे। ज्ञान रूप हो जावे। उसका फल आनन्द होवे। सद्गुरू देव की आज्ञा पालन ही एक मात्र मार्ग है। सत् असत से पार निर्गुण दया कर के सगुण गुरूदेव रूप में प्रत्यक्ष हुआ है। धैर्य शक्ति जो ऋषिमुनियों की हमारे रक्त में उसी के बल पर ’’तत्वमसि अहं ब्रह्मास्मि, अयं आत्मा ब्रह्म और ’’अहिंसा परमोधर्म की शक्ति को सहन कर सकते है। अनुभव कर सकते हैै। संकल्प मात्र से सर्वोपरी शक्ति प्रमाणित करते है। जो कभी हारे हीे नही। (20-21,22-23)
सतयुग बुलाओं जहाँ भक्त भक्ति से अधिक सेवा गुरू की कर प्रसन्न करे। श्रद्धा प्रेेम वाले हो। ऊँचे पात्र हो। इशारे मात्र से पूर्णता प्राप्त करे। गुरू की दृष्टि में शिष्य उच्च हो। सम्पूर्ण कर्म प्रभु के लिये जहाँ लोग करें। अलोकिक अनुभवे। सुविचार युक्त हो। सादा जीवन उच्च ब्रह्म विचार हो। संयममय होे। बल युक्त सशक्त विचार हो। शिव संकल्प हो। प्रेम सब से हो। आत्मवत सर्वभूतेषु देखते है।
अद्धेत प्रबल भाव रहे। स्वार्थ व संकीर्ण न हो। जहाँ सब समर्पण गुरूदेव को करते हो। गुरूदेव स्वयं अपने भक्त की महिमा गाने लगे। भगत भर देरे झोली।’’ भक्त निरन्तर प्रभु स्मरण में निरत हो जहाँ गुरूदेव प्रसन्न प्रसन्न हो जावे। अमरत्व देवे। ब्रह्मत्व देवे। भक्ति व अखण्ड आनन्द शिष्य को देवे। शिष्य सब कुछ गुरूदेव से प्राप्त करते हो। गुरूदेव ही मूर्तिमन्त ईश्वर है। वहाँ गुरूदेव से एकता हो जावे। सर्वत्र गुरूदेव की सत्ता दृश्य हो। विक्षेप नहीं माधुर्य ही हो। जहाँ गुरू में ईश्वर प्रेम हो। श्रद्धायुक्त हो। गुरूमय मन हो। तन्मय तन्मय थावो रे। सब अपने अनुभव हो दूसरा न रहे। गुरूदेव ’’श्री राम मां दृढ़ प्रतिज्ञा थता, शुभ लक्षण शा शां देखाता ’’ गुरूदेव आगे आगे तैयारी कर रहे है। पग पग पर अनुभव हो। आनन्द हो। उच्च अवस्था आनन्द दृष्टि से प्रभु देते है। आत्मा की व्याापकता अखण्डता सिद्ध अनुभव परिपक्व हो, सब कुछ अनुकूल हो जावे। (23-28) भक्त ऐसे सत्संग में हो जहाँ गुरूदेव जो करे वही माने उसने अपना शुभ माने। ’’हो वही जो राम रचि राखा ’’ ’’राम करे सो सही ’’ और भी हमको तो यों भी वाहवाह और यांे भी ।’’हर हाल में प्रभु की इच्छा माने। (24)
सतयुग बुलावे जहाँ अद्धेत सिद्ध किया हो। सत्य सिद्ध किया हो। वहाँ कुल स्वभाव अनुसार वाणी शुद्ध हो। सत्यरूप हो बनाते हो। रूप प्रतिष्ठा दिखती हो। (29) चेतन रूप गुरूदेव का जिसे भक्त के भजन में ’’ऊँ नित्य शुद्ध चेतन सद्गुरूदेव आपकी जय हो’’ ’’चेतन स्वयं गुरूदेव ने लिखवाकर बताया। कठिनाई में भी न्याय करे। धर्म पर चले। (29) गुरूदेव अन्तर में जो बतावे वही करे जो सब को धारण करे, सबको परम कर्तव्य फर्ज है को समर्पित होवे। (29) जहाँ धार्मिक कर्म में उत्साह व सहयोग व समर्पण हो। सतयुग बुलाओ आचरो और गुरूदेव ’’ ज्ञान मूलं सद्गुरू वाक्यं’’ सद्गुरू की आज्ञा ही मंत्र व ज्ञान को अन्तिम कर्तव्य माने। गुरूदेव की महिमा शिष्य के माध्यम से सुंगध की तरह व्याप्त होवे। (29)
जहाँ शंका मत करिये। भक्ति में भजन में लीन होकर भक्ति ही भगवान बनकर भक्त को गुरूदेव में एकत्व अनुभव दृढ़ करे। (29) उसे ’’ आप स्परूप ओडखामी ’’ स्वरूप दर्शन कराते गुरूदेव। प्रवृत्ति मार्ग में सिद्ध करते है। गृहस्थ में रहकर। संसार की जिम्मेदारियाँ निभाते हुए। सिद्ध कराते। प्रमाणित करता। गुरूदेव की दया से। जहाँ भक्ति ज्ञान से समझ कर हो। पागल न हो। संसार व्यवहार व प्रतिष्ठा अनुरूपता बनी रहे। भक्ति ही भगवान के शरण में रखती है। पात्र अनुसार व्यवहार देना लेना हो। (30) वहाँ ईश्वर अवतार हो। दया,क्षमा व न्याय देता हो। संसार में रहते कमल की तरह रहे ?प्रयत्न से सुख की खोज करते हो। परंब्रह्म स्वरूप गुरूदेव का देखना पर लक्ष्य याद रहता है। (31) अनुभवी होकर ही जहाँ उपदेश देते हो। अहंकार व दिखावा होकर जहाँ उपदेश न देते हो। अहंकार व दिखावा जहाँ न हो। व्यसन से सत्ययुग में दूर रहते है। ’’मुक्तो अन्याय मुच्चते’’ मुक्त दूसरों को मुक्त वहाँ करते हैं। परा व अपरा प्रकृति के कार्य शक्ति के दृढ़ सिद्धान्त हमें गुरूदेव की दया से समझ में शक्ति स्वयं समझावे। वह स्वयं उसमें व्याप्त दीखे। एकत्व अनुभवे एकत्व अनुभवे और निर्भय होते जहाँ। गुरूकुल हो अध्यात्म व सर्वागिण शिक्षा हो। परतन्त्रतान रहे। राज्य शत्ता के सात्विक स्वरूप दर्शन जहाँ प्रभु कराते हो। सविधि उसकी पूजा हो । ऋषि मुनियों का पूजा का आदेश पालते हो। पात्र बनावे। स्थूल स्वरूप व बुद्धि के लिये आदेश नहीं। सतयुग जहाँ प्रसन्न करने के लिये अन्तिम कमल पूजा करते हो। ’’तत्वमसि ’’ पल ही वही स्वतंत्रता वही एक्यता है ’’ (31-32) उसकी दया से सत का अनुभव होकर एकरूपता होती हो वहाँ अन्तिम ’’ अहं ब्रह्मस्मि’’ की महानता अनुभवे। गुरूदेव की शक्ति से संभव हो सकता है। अमृत पान होता है। वे दया सागर है। वह कमल पूजा सिखाती है। आनन्द आनन्द हो जाता है वहाँ कमल पूजा के लिये पात्र उत्तम भी मिलते है। मृत्यु को जीत लेते है। (32-33)
ऐसा सतयुग हो जहाँ गुरूदेव राम श्याम गोपाल ही को परमब्रह्म मानते हो। पूजा करते हो जहाँ ’’ध्यान मूलं सद्गुरू मूर्ति, पूजा मूलं सद्गुरू पदम मंत्र मूल सद्गुरू वाक्यं, मोक्ष मूलं सद्गुरू कृपा।’’
मानकर ध्यान पूजा अर्जना, सत्संग आदि आदि उनका ही हो। जहाँ
कर्म व्यवहार सब करते पर आसक्ति न हो। स्वस्फूर्त क्रियाएँ होने लगे, विचार आने लगे। वे ही ब्रह्मविचार हो। स्वाभाविक हो। र्स्फूरणाएं स्वभाविक बहे। ऐसे योगी ही हो। उपनिषदानुसार हो। समत्व बुद्धि वाले हो। ’’सुख दुःखे समे कृत्वा हो। ’’समः शत्रौ चमित्रेच ’’ हो। ’’सम सर्वेषु भूतेषु ’’ देखता हो ’’ सम पश्यन्हि सर्वत्र समवस्थितमीव्श्ररम्’’ (गीता 13/28)
सब ऐसा हो। स्वर्ग सा हो। आत्मवित हो। सुसंस्कृत हो। वैदिक शिक्षण हो। ऋषिकुल हो। स्वराज्य हो, मोक्ष सब प्राप्त करे। महात्मा महापुरूष अधिकाधिक आवे। सत्ययुग के बजारोर्पण क्रम-क्रम से हो कर उत्तम शान्ति का जैसा समय लाने में सहायक होना चाहिए।
(बोध. 35)
’’मेरी हिन्ददेवी के वीर पुत्र अवश्य ही अपने मूल स्वरूप की और दृष्टि फेकें यही मात्र सतयुग की गिनती में है।’’ (35) ’’सतयुग का गर्थ बन्धेगा।’’ (35) ’’---साक्षात् श्री कृष्ण जन्मेगे। उसे सतयुग का बालक ही समझना। ’’सत्’’ शब्द की कितनी मर्यादा बांधी जा सकती है - ऐसे समझ कर सतयुग के गर्भ का पोषण करो। दूसरे गर्भ की उपासना करो विचारो से निमन्त्रित करो। इस समय को निमन्त्रो। (बोध. 35)
’’इससे भी अधिक उच्च पद मोक्षपद जो उत्तमोत्तम है उसकी और तो लक्ष्य बिन्दु कर्म योग आचरित करते हुए अवश्य रखना है ’’ सत्ययुग के आने की राह देखते रहे। - उसी क्रिया के गर्भ पोषण करना कहा जाता है। (35) ’’बालक को ---- उत्तम संस्कृति वाले मार्ग पर जाने देना चाहिए। योग्य दिशा में भूल भूल हो, समझाकर निर्मूल करे।
कर्त्तव्य है। (35) सत्ययुग जड़ स्थूल रूप में होता अधिकाधिक चैतन्य होता जाता। बुद्धि द्वारा भी वह सत्य समझ में आने लगेगा। अति सूक्ष्म सत्य जीवन में व्यवहार में लावेगें। गुरूदेव ने वेदान्त और व्यवहार एक कर बताया ’’। जीकर बताया। अनुभव करवाया। भक्तों को आनन्द दिया। स्वराज्य के समय सहयोग हमारा कर्त्तव्य है सत्य की मर्यादा बुद्धि मे प्रभु दे। आगे सत और असत से परे है वह लक्ष्य है। मोक्ष से भी आगे परम तत्व लक्ष्य है। उपासना से दया से वह दर्शन देगा। गुरूदेव की दया से (36) गुरूदेव राम श्याम गोपाल दया करेगें। कल्याण करेगें। मार्ग प्रशस्त करेगे। उनका आर्शीवाद है। तीव्र भाव के बल से आज्ञा अनुरूप बनेगे। (36) सतयुग मांगो जहाँ गुरू सेवा एक मात्र हो। अनन्य शरणागति हो। ’’ध्यानमूलं सद्गुरूमूर्ति पूजामूलं सद्गुरूपदम् ’’ ’’सांसे सांसे रटू थारो नाम ’’ गुरूदेव की आज्ञा पालन में सेवा में, कार्यो में सतत लगे रहे। सेवा पूजा बन जाय। तब बाधाए नहीं रहती। पूर्णता आ जाती है। तन्मय हो जाता है। ’’आप स्वरूप ओडखामी ताप त्रिविध हर जो ’’ भेद नहीं रहता। द्वेत नहीं रहता। माया से परे हो जाता। गुरू अपना स्वरूप दे देते है। सेवा गुरूदेव की यही मुक्ति है। सब कर्म गुरूदेव के लिये ही हो जाते है। भक्त तो सेवा के लिये बार-बार प्रभु गुरूदेव के साथ आना चाहता है।
’’रहे जनम जनम थारो साथ’’ वह तो मांगता है ’’जब जब तू आवे साथ हमें लाना ’’ भगवान के साथ भक्त भी आते है। लीला करते। जगत की व्यवस्था करते। भक्तों को आनन्द देते। सेवा ही धर्म बन जाता। (37)
भक्ति में केवल गुरूदेव से प्रेम ही रहता है। हृदय बार बार भक्त का प्रेम से भर जाता है। आनन्द से उच्छाले खाने लगता है वही सतयुग है। प्रेम की परकाष्ठा है। गुरूदेव के आर्शीवाद से आध्यात्मिक और सर्वागीण सबकी उन्नति होती है। सफलता, सुख, नैतिकता आदि प्राप्त होती है। सतयुग जहाँ सब गुरूदेव को अर्पण करते है। गुरूदेव सदैव आगे तैयारी करते है। अनुभव होता रहे। उनके ध्यान में निरत रहे। उनकी शरण हो। आश्रित हो। मोह न हो। मोह व लेन देन से सम्बन्ध समझ आवे। सब प्रभु को माने। अपने को व्यवस्थापक माने।
सतयुग में मेरा पन न रहे। तब आनन्द आनन्द रहता है। सच्चा समर्पण, प्रपत्ति होने पर होवे। सम्पूर्ण व्यवहार भी आनन्द हो जावे। सब आनन्द देने आने लगते है। संयोग को सत्संग दृष्टि से देखने लगते है। (39) क्रियाएँ ब्रह्मकर्म बना लेते है। परमार्थ होने लगता है। जगत हिताय कर्म होने लगते है।
माया भक्त को सहायक बन जावे। गुरू भक्ति से श्रेष्ठ कर्म होते है। उच्च कर्म फल भाग्य बनकर आने लगता। सुख ही सुख रहता है। वहीं परमात्मा है। निशंक शरणागति रहती है। (40)
गुरूदेव ने इस मार्ग में निश्चित व निर्भय रहने का प्रभु ने आश्वासन दिया है। सब प्र्रभु का है। दृढ़ मान्यता होने पर प्रभु सर्वत्र विजय देते है। ’’मैं प्रभु गुरूदेव का हँू गुरूदेवे मेरे है ’’ विश्वास दृढ़ होता है वहाँ गुरूदेव राम श्याम गोपाल ही सर्व साधना के फल रूप है। ’’महिमा’’ जासू जानी गणराऊ उने उसे प्रभु स्वस्थ करते। उत्साही बनाते। और एकत्व अनुभव होता। ’’एको ब्रह्मो द्वितीयो नास्ति ’’का अनुभव होती है। (40-41) वहाँ उबते नही। व्यवहार को गुरू सेवा मानते है। प्रार्थना करते रहने से गुरूदेव दया करते है। सुख दुःख समे कृत्वा उसे भी प्रसाद मानते है। (42)
गुरूदेव अच्छे ही करते है एक आत्मा सर्वत्र देखते है। साकार वही है। निराकार वही। द्वेत भी अद्वेत भी वही है। दोनो एक दूसरे में है। वहाँ भक्त कर्म भोग में भी गुरूदेव प्रभुता देखता है। वहाँ ज्ञानी एक ही गुरूतत्व सब में देखे वह ज्ञानी। विज्ञानी दया से होता है। ’’होई ही वही जो राम रचि राखा’’ वे करते वही होता है। (43)
उथल पुथल शुभ है। भले के लिये है। ’’सर्व रूप गुरू सर्वदेव, सद्गुरू सर्वम् गुरूमयं जगत’’ सर्वव्यापकता, ’’व्यापक छो स्वामी।’’ सर्वात्म भाव ब्रह्म होता है। मुक्ति आसक्ति न होना ही है। यहाँ गुरूदेव के वचन पूर्ण सत्य है। पूरे होते है। निश्चित है। फर्ज कर्त्तव्य कर्म को मानते । गुरूदेव की कृपा से निष्काम कर्म प्राप्त होता है। वही सच्ची सेवा है। (43-44) गुरूदेव दया नीधि है, उदार है, अनुभवे। कार्यरूप वही है। प्रभु अर्पण कर्म कर दो। वही सेवा है।
प्रभु प्रेम रूप है। स्वयं है। ’’छिदन्ति हृदय ग्रन्थानी’’ निष्काम भक्ति से प्रभु गुरूदेव प्राप्त होते है। ज्ञान होता है। प्रेम, अनुराग उदय हो सच्ची भक्ति होती है।
वहाँ हृदय में गुरू का ध्यान करते है। साथ साथ जप होता है। ब्रह्म मूर्हत में वहाँ 3 घंटे का परिपक्व समाधि होती है। सिद्धान्त समझना गीता है। (44-46)
एकत्व गुरू से अनुभव करते है। तन्मय होते। जप, सत्संग, लीला चर्चा, महिमा कथन, आदि आदि होते है। सेवा भक्ति देते है। अद्वेत मे ले जाते है। गुरू के ध्यान से सब काम होते है। गुरूदेव के पास जाने के संकल्प मात्र से सर्वत्र शुभ होने लगता है।
’’ब्रह्मनिष्ठ गुरू शरणे जाता, अघढग नाखे निवारी ’’
’’न शोक भय चिन्ता न क्लेश कदी रोतो’’ ’’विश्व माही दीठा’’ ’’सर्वत्रं रलियावणो’’ लगने लगता है। ’’जीवमटी शिवथई गयो ’’ ये तो बहुत ’’ रूपारा है ’’ आगे विश्वनाथ भई कहते है ’’भक्त के द्वारा भगवान संसार का काम करते है।
गोपाल ने गोस्वामी दिल्ली को, आने पर वेतन का पूछा बोले पूरा नहीं होता होगा। दिल्ली जाने पर दोनों बार सब का वेतन वृद्धि हो गई। इस प्रकार भक्त के द्वारा संसार की व्यवस्था करते है। गोस्वामी से भरूच में गोपाल ने मकान का पूछा। दिल्ली जाने पर सस्ते मकान की स्कीम आई और किश्तो में। वह भी बहुत कम। इस प्रकार सबकी व्यवस्था करी। उनके आदेश सम्पूर्ण सृष्टि मानती। उनके भय से सब चल रहे है। सूर्य चन्द्र यम आदि। वेद व उपनिषद घोष करते है।
भक्तों के लिये गुरूदेव लिखते है ’’ प्रभु सेवा उठाते हो -- इस प्रकार की भेंट प्रभु के चरणों में बहुत ऊँची प्रकार की गिनी जाती है।’’ ऊँचे पात्र भक्त के लिये कहते ’’ तुम्हारे हृदय में अन्तर में इतनी श्रद्धा और प्रेम कैसे उद्भव हुआ यह भी एक ऊँची पात्रता का प्रमाण है। पात्र कब खिल उठते लिखते है - ’’ऊँचे पात्र कोई एक विक्षेपो के कारण अमुक समय अज्ञान दशा में रहकर सहज इशारे से अद्भुत खिल उठते है। ’’ गुरूदेव ऊँचे पात्रो के प्रेम को देखकर आनन्द विभोर हो जाते। वे स्वयं लिखते है ’’प्रेमी - शुद्ध प्रेमी - भक्तो को देखता हँू । उन्हें याद करता हँू उनके पत्र पढ़ता हँू। तब मेरे देह की स्थिति योगेश्वर की स्थिति के समान हो जाती है। इसका वर्णन अशक्य है ’’ पात्र को वे गुरूदेव स्वयं तैयार करते है। ’’ तैयारी तो अन्तर प्रदेश में इतनी होती रहती प्रसंग मिलते ही थोड़े ही समय में आध्यात्मिक जीवन बता सकोगें। आगे गुरूदेव लिखते है ’’ मांसिक बंधन को घारोें सब भूल सकते हैै।’’ आगे निश्चय की दृड़ता बताते’’ अन्तिम लक्ष्य को कभी भूलते नहीं हो।’’ अपने भक्तों ऊँचे पात्र से प्रेम में आकर बाते करते है। भेद नहीं रखते। मित्रवत रहते। उन्नति करते है। प्रशंसा करते। दे देते है। भक्त वैसे ही बनने लगते है। बनते है। सब कर्म प्रभु के लिये करते है। । 25।
अवतार भक्तों पर दया करके होते है। भक्तों के प्रेम के अधीन होकर गुरूदेव राम श्याम गोपाल भी साकार रूप मंे आरूढ़ हुए। गीता में स्पष्ट लिखा है। ’’परित्राणाय साधू नाम’’ भक्त के लिये आते है। भक्त को सताने वालों दुष्टो को दण्ड देते है। ’’ विनाशाय दुष्कृताम्’’
भक्तों के माध्यम से संसार का काम करते। अत्याचार मिटाते है और ’’धर्म की स्थापना करते। नियम लागू करते। रामकृष्ण ने पुरानी जड़ व्यवस्था को ध्वस्त किया। पुरातन व्यवस्था में दोष आया उसे समाप्त किया। छूआछूत जाती वाद, आदि आदि अनेंकों दुषित व्यवस्था विचार रहन-सहन, खान-पान बोल-चाल, आचार-विचार, ज्ञान-विज्ञान, धर्म-कर्म सब मेें सुधार किया। और भारत की कुण्डली जगाई। और अद्भूत परिवर्तन दु्रतगति से हुए। अपने भक्तों के माध्यम से समाज का काम किया। जो मान्यता एवं जीवन हजारों सालों से चले आ रहे नये वे बदलने लगे। आज हम बैठकर विचारों कि उस सौ पचास साल के समाज की और आज के समाज की तुलना करे तो हमें ज्ञान होगा। यह सब परिवर्तन इनती दु्रतगति से कैसे हुआ ?हमारे एक ही जीवनकाल में यह सब देखा है। इस प्रकार राम श्याम गोपाल ने भी भक्तोें के माध्यम से संसार की व्यवस्था की। पुरानी मान्यता विचार जीवन रहन-सहन खान-पिन बोल-चाल उठक बैठक, आचार विचार, धर्म-अध्यात्म, ज्ञान-विज्ञान अदि आदि में परिवर्तन लाकर संसार का काम किया। लीला लीला में भक्तों को आनन्द दिया। भक्त के दुःख दूर हुए। वे तो ’’व्यापक छो स्वामी है।’’ गुरूदेव तो साक्षात् ब्रहा है। विभू व्यापक है ’’ वे जो काम करते है वे सारे ब्रह्माण्ड में लागू होते उन्हें आदेश सारी प्रकृति पालती है। इस प्रकार भक्तों की प्रार्थना से द्रवित होकर भक्तों के लिये वे काम करते है जो सारी दुनिया के काम हो जाते है। इसीलिये ’’सम्भवामि युगे युगे।’’ बार-बार संसार की व्यवस्था करन आते है। भक्त भी सब प्रभु को सोप देते। गुरू मय हो जाते ।
निडर होते। आश्रित होते। उन्हें जो मिला होता सब प्रभु सेवा लगता है। गुरूदेव कहते ऐसा भक्त मेरा हृदय है। (बोध. 25)
वे ’’ उन्हें प्राणों से भी प्यारे है ।’’ भक्त और भगवान एक दूसरे के लिये होते है। रामकृष्ण आये तो विवेकानन्द के लेकर आये। अवतार जब होता है तो लीला सहयोगी साथ आते है। भक्त साथ आते है। रामावतार में सब देवताओं ने भी पहले आकर लीला में सहयोग दिया। उन भक्तों को आनन्द दिया रावण आदि के अत्याचार व दुराचार को समाप्त किया। वैदिक व वेदान्त को लागू किया। धर्म की स्थापना की। अपने भक्तोें के माध्यम से जगत की व्यवस्था की। इसी प्रकार कृष्णावतार में प्रभु ने भक्तों को सुख व आनन्द दिया भक्तों द्वारा संसार का काम किया। धर्म, कर्त्तव्य, सिद्धान्त लागू किये। अध्यात्म जीवन दिया। राम श्याम गोपाल भी भक्तों को साथ लाये कुलाबेन को बाबजी ने कहा था अपने पिछले जन्म में साथ थे। अनेक भक्तों को पिछले जन्मों के नाम दिया। जैसे दत्त आदि। अनेक भक्त जो प्रभु के साथ में लीला सहयोगी थे उनके गुरूदेव ने नाम बताये। घासीभई के लादू महाराज रामकृष्ण के समय के बताये। मोटा को नरेन्द्र थान्दला में बताया। गोपाल को स्वयं को मीरा घनश्याम प्रभु ने बताया और बांसुरी से उनका आर्कषण प्रमाण दिया। उन्हें कृष्ण स्वरूप का आनन्द दिया। प्रमाण दिया। इस प्रकार अनेक प्रमाणों से भक्तों को साथ लेकर आये। प्रमाण दिये। इस जीवन मंे जीने में धर्म और अध्यात्म में जो कठिनाई आयी उन्हें दूर किया। और जीवन में सुधार किये। नवीन जीवन पद्धति लागू की। पुरानी व्यवस्था ध्वस्त की । नयी व्यवस्था लागू की । विवेकानन्द कहते कि दूसरा विवेकानन्द ही विवेकानन्द के कार्मो को समझ सकते। इस प्रकार घनश्याम प्रभु भी यही बात कहते। उनको कौन जान सकता। ’’जानत तुम्ही तुम्ही होई जाई ’’ ’’ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति’’ ’’तुम्हे व विदित्वाति मृत्यु मेति’’ उनकी महिमा अनन्त है। लिखति यदि शारदा सर्वकालं पारनयाति।’’ इसीलिये ’’सम्भवामी युगे युगे’’ बार बार अवतार लेते है भक्ति से द्रवित होकर। ’’तदात्मानाम सृजाम्यहमं ’’ धर्मस्थानाय आते। जगत व्यवस्था के लिये अवतरित होते। भक्तों को आनन्द देनेे आते। दुःख दूर करते। लीला गुरूदेव ने भक्तों के साथ की आनन्द दिया। भक्तों के काम किये। भक्तों के माध्यम से संसार का काम किया। जो समय के साथ अनुभव में आवेगा। सतयुग के आने का वचन दिया। सत्यबुद्धि में आवेगा पर अपने समय पर आगे आने वाले परिवर्तन व समय का भी प्रभु ने स्पष्ट किया है। उन्होनें जो जो वचन दिये। भक्तों को वे सब पूरे होगे। और उन उन वचनों व संकल्पों के द्वारा संसार के शुभ कार्य होगे। नई व्यवस्था लागू होगी। गुरूदेव राम श्याम गोपाल ने विश्व ब्रह्माण्ड व संसार की जगत की सब व्यवस्था लागू कर दी। सब काम पूरे करके शरीर छोड़ा है। बोला की अब सब काम हो गये। पूछा था अब काम तो नहीं। अब कोई प्रश्न तो नहीं। जिन-जिन कामों के लिये आये वे सब काम पूरे किये। वे सब संकल्प पूरे किये। वे सब वचन दिये। उनके वचन झूठक होय नहीं। वे सब पूरे हो रहे है। पूरे होगेे। प्रकृति को उन्हें पूरा करना होगा। उनके आदेश से, भय से सब चलता है। चल रहा है। चलता रहेगा। अध्यात्म वेदान्त और व्यवहार एक होता जावेगा। सिद्धान्त जीवन में उतरते जावेगे। और सत्य जीवन में आता जावेगा। सत्य बुद्धि में आने लगेगा। आवेगा। सत्ययुग का गर्भ बंन्धेगा। सत्य युग आवेगा। पर गुरूदेव की इच्छानुसार संकल्पानुसार दया करेगें। भक्त के भावानुसार । गुरूदेव लिखते ’’भक्तों से मेरी तादात्मय द्वारा ही मै पूर्णता प्राप्त करता हँू ’’ (25) कैसी भक्तों पर दया । वे तो स्वयं पूर्ण है। भक्तों पर उनकी दया। उन्हें आगे करते है। ’’वे मुझे स्मरण रखे यही मैं चाहता हँू। ’’(25) ’’सब कर्मो को निशेषकर इति कर्तव्यता प्राप्त करने पर उन्हें अपने लिये कुछ करना होता ही नहीं ’’ (25) सब गुरूदेव स्वयं भक्तों के लिये करते। घनश्याम प्रभु कहते ’’तमे तो आनन्द करो’’ हँू तो सोयाला ने जगा लूँगा समय पर गोपाल ’’हँू तमारे माटा करू छू’’ भक्त भी सब प्रभु के लिये करते है। ’’प्रभु उनके सेवक बने’’ ’’अपनी शत्ता दे प्रभु’’ ’’भक्तों को सुख भोग कराते प्रभुता है।’’ ’’विश्व के महान दात्ता व उदारता बतावेगें।’’ इस विश्वास से भक्त लोग उनके पीछे-पीछे दौड़ते है। सचमुच में वह महान है। वह सब सर्व कुड़ा, कर्कट कचरा व हमारा अपने में ले लेता है। (25) ’’बदले और अमरत्व देता है।’’
पूण्य ले लेता है, और अचल भक्ति ले लेता है और अखण्ड आनन्द की बकशीस उन्हे देता है। भ्रमणा ले लेता है और ब्रह्मत्व उन्हें प्रदान करता है।(25) ऐसे वे गुरूदेव राम श्याम गोपाल है। सारे विश्व के जीव जिसमें चिरकाल शान्ति प्राप्त करते है। फिर भी उसमें कुछ भी कम नहीं होता अनेक युग बीतने पर भी जिसमें कुछ भी न्यूनाधिकता होती ही नहीं ऐसा प्रभु गुरूदेव राम श्याम गोपाल है। उसकी प्रभुता है। महानता है। अपार महिमा है। ’’सभी उस पर विश्वास करते है। जो चाहिये उसी से प्राप्त करते है। वह तो वास्तव में मूर्तिमन्त ईश्वर है। वे राम श्याम गापेाल है। जब वे साकार स्वरूप में आरूढ़ होने की रीति जाने तथा भक्तों के प्रभु की मुग्ध स्थिति का परिचय होती है। अनुभव हो सकता है। तभी वे अपने जीवन को धन्य कृतार्थ हुआ समझते है। इस प्रकार प्रभु भक्तों पर दया कर उनके माध्यम से जगत का काम करते है। लीलामय है। भक्त गुरूदेव की शक्ति से विश्व कल्याण के लिये पात्र बनकर दौड़ पड़ते है। ’’अग्रसर थई सहुनेदोरी जाता, सहुना हित मा तत्पर रहता। सहु ने पोता जेवा गणता, शुभ लक्षण शां शां देखाता।’’ ’’विश्व ज्योति अखण्ड देखाय-दीवो दुनियानो’’ शिष्य को सारा विश्व एक अखण्ड प्रकाशमय दिखता है। सारे विश्व का वह गुरूदेव की दया से गुरूदेव का काम करता है। विवेकानन्द ने रामकृष्ण के जगत हिताय काम किये। वेदान्त का प्रचार किया। में शिष्य गुरू की शक्ति के माध्यम से जगत का काम करते है। शिष्य में गुरू स्वयं रहते है। ’’घनश्याम प्रभु कहते है मैं तो हूँ तो एनामा रहिने ने तैयारी करू छू अन्तमा एने चाबी आपी दू छू’’ शिष्य ही गुरू की पहचान है।
यहाँ ’’नित्य शुद्धं चेतन स्वरूप है।’’ घनश्याम प्रभु ने भजन ’’ऊँ नित्य शुद्ध ऊँ कार हो तुम गुरूदेव को उनकी जगह चेतनय हो तुम गुरूदेव ’’ चेतन है। उनकी चेतनता ही सारी सृष्टि में व्याप्त है। ’’आ विश्वना अणु अणु में आप पोते ’’ ने आप एक अखिलेश महद् स्वरूपे।’’
इस मार्ग में ज्ञान को व्यवहार में लाया है। घनश्याम प्रभु कहते ’’ हँू तो शक्कर नो हल्वो वणावुने खाऊँ छँू।’’ वेदान्त को व्यवहार में लाया है। वेदान्त और व्यवहार गुरूदेव ने एक किया। ज्ञानी ता है ही विज्ञानी भी है। जीवन में उतरा है। उनका पूरा जीवन वेदान्त और व्यवहार एक कर दिया। केवल ब्रह्मनिष्ठ है। मंत्र दृष्टा ही नहीं।
स्वयं मंत्र सृष्टा है। पूरा जीवन सत्य स्वरूप है। ब्रह्म स्वरूप है।एक क्षण में लीन हो जाते घनश्याम प्रभु कहते ’’तमे पलक मारो एना पहला तो हँू लीन (ब्रह्ममा) थाई जाऊँ ।’’ जगत का व्यवहार करने नीचे आते। व्यवहार करने के बाद तुरन्त सब संस्कारो को लीन कर देते। समाप्त कर देते। और ब्रह्म में लीन हो जाते। ’’पानी पर की लकीर जेम।’’ उनका पन्द्रह आनी मन ब्रह्म में रहता। इसीलिये उनका व्यवहार भी ब्रह्म स्वरूप होता है। ब्रह्मकर्म होता है। ’’म्हारा राम ना वचनों मंे झूठक होय नहीं।’’ घनश्याम प्रभु कहते ’’हूँ तो मजाक मा भी झूठ नथी बोलूँ’’ उनके वचन है ’’बन्दूक नी गोली खाली जाय पर म्हारा वचन खाली नथी जाय।’’ उन्होनें जो कहा वही होता है। हो रहा है। होता रहेगा। उनके संकल्पानुसार सार सृष्टि को चलते रहना पड़ेगा। उनका आदेश अनुसार प्रकृति को चलना पड़ेगा। पालन करना पड़ेगा। उनके भय से सूर्यचन्द्र यम आदि सब गृह ऩक्षत्र आदि सब चल रहे है। अपना अपना काम कर रहे है। जो-जो वचन दिये भक्तों को वे पूरे निश्चित समय पर होगे। इस प्रकार भक्तों के माध्यम से भक्तों के द्वारा गुरूदेव जगत का काम करते। व्यवस्था जगत की करते। परिवर्तन जगत में करते। पुरानी जड़ अव्यवहारिक व्यवस्था को ध्वस्त करते। नयी व्यवस्था लागू की। जगत का हित भक्तों के माध्यम से भक्तों के द्वारा की। भक्तों दुःख दूर किये। ’’विनाशय दुष कृताम्’’ दुष्टों का दबन किया। सतयुग लाने का मर्गा प्रशस्त किया।
इस प्रकार भक्त के माध्यम से जगत के हितार्थ लोकल्यार्थ, परमार्थिक कर्म भक्तों से प्रभु करवाते है। ’’जीवमटी शिव थाई गयो’’ ’’ए गुण केम विसारे’’ घनश्याम प्रभु कहता ’’पारस ने पारस बणावू छँू।’’ भक्त को अपना स्वरूप दे देते। अपनी सामर्थ्य दे देते। पात्र बनाते। जगत हितार्थ उनके आदेश से वह करते है। सब भक्त उनका गुरूदेव का स्वरूप है। उनकी भक्ति व शक्ति और सामर्थ्य उनमें है। उन्हें आदेश जगत के काम का है वे करना है। आगे भी भक्तगण गुरूदेव के आदेश अनुसार गुरूदेव की महिमा व्यापक करते रहेगे। दीपावेगें
अपने गुरूदेव को। राम श्याम गोपाल को महिमा सारे विश्व में व्याप्त करेगे। उनके सिद्धान्तों को गुरूदेव के जीन को। गुरू के इस कर्म सन्यास मार्ग को प्रसार करेगे। ज्ञान निष्काम कर्म और भक्ति के इस मार्ग को दुनिया में फैलावेगे। प्रवृत्ति मार्ग का गृहस्थ में रहकर भी प्राप्त किया जा सकता है। बतावेगे। सतयुग लानेे में ’’ तुम और हम ’’ उनका आदेश है। सतयुग आयेगा राम श्याम गोपाल का वचन है। आदेश है। आर्शीवाद है। संकल्प है। भक्तों के माध्यम से। शिष्यों के द्वारा। उनका आदेश अवतरित होगा। व्याप्त होगा। महिमा उनकी सर्वत्र दिग् दिग्न्त व्याप्त होने से कौन रोक सकता है। गुरूदेव का अवतरण के कई कारण है। उद्देश्य है। भक्तों की भक्ति सेविगलित होकर साकार रूप लिया। भक्तों के दुःख दूर किये भक्तों को आनन्द दिया। लीला की। लीला लीला में जगत की व्यवस्था की। नयी व्यवस्था का मार्ग प्रशस्त किया। संकल्प किये। आदेश दिये। सतयुग लाने के लिये तैयारी की। पात्रों को तैयार किये। आगे गोपाल कहते ’’बालको माँ संस्कार पडे छे।’’ मन्दिर, भक्त शिष्य आदि के द्वारा नयी पीढ़ी तैयार होती जायेगी। संस्कार अधिकाधिक संस्कार में पढेगे। घनश्याम प्रभु कहते ष्डल् ैम्स्थ् प्ै न्छप्न्म्त्ब्प्ज्ल्ष् सच में वे जगत में लाने वाले साक्षात् ब्रह्म ही है। अध्यात्म व धर्म इस मार्ग से उनकी पूजा से आवेगा। चेतना आवेगी। क्रमशः अधिक चेतनता आवेगी। ’’विचार स्फूरेगे वे स्वाभाविक होगे।’’ ’’स्फूरणाए स्वाभाविक होगी।’’ स्फूरणाओं का प्रवाह बहता रहे। ’’साम्यबुद्धि गिने जाते।’’ ’’वे प्रज्ञा है।’’ समृद्ध देश में धर्मग्रन्थी, न्यायशास्त्री, विचार अनुरूप शास़्त्र विधि प्रमाण से कार्य करने वाले जन्म लेता है। ’’वैदिक शिक्षण का प्रचार होगा’’ गुरूदेव का आदेश है ’’आत्मज्ञान होगा।’’’’सम्पूर्ण स्वतन्त्र ऋषिमुनि जन्मेगे’’ स्वतन्त्रता से भी अति उच्चपद मोक्ष जरूर प्राप्त करेगे। ’’कर्म योग कर बताने वाले गुरूदेव के आदेश से जन्म लेगें।’’ कलयुग में भी सतयुग का बीजारोर्पण होगा। उत्तम शान्ति का समय लाने में गुरूदेव के आदेश शिष्य भक्त सहायक होगे। स्वराज्यवादी मान्य क्रान्तियों हो ’’सतयुग का गर्भ बन्धेगा।’’ गुरूदेव के आदेश से भक्त मूल स्वरूप की ओर दृष्टि फेकेगे। दसमें अवतार है प्रभु। सतयुग की उपासना करेगे। निमन्त्रेगे। मोक्ष पद पर लक्ष्य रखेगे। ’’कलयुग में भी जमाना पहले जड़रूप से आवेगा। स्थूल रूप में होगा। फिर कुछ चेतन जुड़ेगा। फिर उसमें भी अधिक चेतन्य वाला प्रदेश होगा। अन्त में सत्य की सीमा बुद्धि द्वारा भी समझ में आवे ऐसा जमाना आवेगा। उसे लाने वाले तुम, और सभी महाकारण रूप (कारण के भी अति सूक्ष्म रूप ) बन सके या अपनी सन्ताने बन सके। यह तो निश्चित है। गुरूदेव का संकल्प है। आदेश प्रकृति को पालना होगा। हमें भक्तों को, शिष्यों को करना होगा। पूर्ण ही होगा। निश्चित होगा।
सत्य की मर्यादा बुद्धि में आवेगी। आदेश है। उससे परे ’’ सत अथवा असत जो मोक्ष से भी अधिक है। सत्पद धारण किया हुआ है। शिष्य और भक्त संत उसे लक्ष्य में रखेगे। उपासना करेगे। सूक्ष्म स्वरूप दिखेगा। गुढ़ अवस्था होगी। तद्रूप होगे। दीखेगे।
संतो का स्वभाव ही ऐसा हो जाता है। जिसे स्पर्श करते उसे अपना जैसा बना लेते है। भगवत चिन्तन और भगवत सेवा करते करते अन्त में भगवान के अनन्य शरण हो जाता है। ’’मुक्ति भी सेवा को ही मानते है।’’ सब कर्म गुरूदेव परमात्मा नाम होते है। उनके कर्म संचित होवे। प्रारब्ध बने। वह भगवान जैसा भाग्यशाली पुरूषों के ही होते है। ’’सम्भवामी युगे युगे ’’ भगवत सेवार्थ प्रारब्ध लेकर अवतरित होते रहते है। भगवान का अवरण में भक्त लोग साथ ही होते है। वे अपने भक्तों के साथ अनेक लीलाएं करते है। जिससे विश्ववस्था करते है। वे प्रभु के सामर्थ का प्राप्त करते। गुरूदेव प्रभु की महिमा बढ़ाते है। प्रत्येक जीव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है। इस प्रकार भक्तों को माध्यम से प्रभु गुरूदेव की महिमा बढ़ाते है। प्रत्येक जीव के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते है। इस प्रकार भक्तों को माध्यम से प्रभु गुरूदेव जगत की व्यवस्था करते है। आदि आदि।
’’आगे पूज्य विश्वनाथ भई कहते है। ’’भक्त द्वारा भगवान संसार का काम करते है। वह सब का पुण्य भक्त के खाते में जाता है।’’ भक्त के प्रभु गुरूदेव अधीन हो जावे।’’ बन्धई जाये जगत को नाथ काचा सूतर केरा साथणे। भक्त के प्रेम में गुरूदेव स्वयं भगवान बंध जाते है। ’’छछिया भरी छाछ पर नचावे।’’ गोपियाँ उन्हें नचाती है उनके लीला सहयोगी बनती। रामावतार में दशरथ को शल्या आदि आदि भक्तों ने अधीन अवतार लिया। सुख दिया। सब काम भक्तोें के किये। सब इच्छाएँ पूर्ण की। सब इच्छाओं के पूर्ण करने वाले गुरूदेव राम है। बोधवाणी में लिखा है। रावणादि दुष्टों का दलन किया भक्तों की रक्षा की। जगत से अन्याय दूर किया। निर्मल समाज की रचना की। वेद ब्राह्मण व साधू संतो व संम्य समाज की स्थापना की। राम राज्य की स्थापना की ।
प्रभु गुरूदेव भक्तों को साथ लाते। लीला सहयोगी बनाते। भक्तों के सब काम करते। सब इच्छाएं पूरी करते। पूण्य में यहाँ तक दे देते ’’अपना स्वरूप दे देते ’’ (बोध.) अपनी शक्ति दे देते। अपना जैसा बनाते । भक्त भी जगत के काम करने लगता है। इस प्रकार भक्त के माध्यम से भगवान जगत का कल्याण करते है। वह पूण्य भक्त के खाते में जाता है। वह भगवत स्वरूप हो जाता। भक्ति मुक्ति सब उसे प्राप्त होती है। पर वह तो भगवान की सेवा को ही मोक्ष से ’’बडकर ’’मानता है। ’’वह तो मांगता है। ’’जब जब तू आवे साथ हमें लाना ’’ आगे वह गाता है। मोक्ष नहीं चाहता ’’रहे जन्म जन्म तारो साथ ’’
कृष्णावतार में प्रभु ने लीला की भक्तों को साथ लाये और जगत की व्यवस्था की। बदले में गीता ज्ञान दिया। दिव्य दर्शन दिया। विराट दर्शन दिये। विजय दी। सब भक्तों के काम किये। जन-जन को शोक से भय से उबारा। क्लेव्यता से उभारा। देह व आत्मा का अन्तर दिखाया। सत्य की प्रतिष्ठा की। आत्म ज्ञान दिया। गुण बताये। धर्म को प्रभु ने आलोकित किया। कर्त्तव्य मार्ग प्रशस्त किया। (गीता ) निस्त्रेगुण्यो का कहा’’ ’’आत्मवान भव’’ का आर्शीवचन कहे।’’ ’’कर्मण्येवाधिका रस्ते’’ मा फलेषु’’ कदचन सकाम न करने का कहा। ’’समत्व बुद्धि’’ से कर्म करने का उपदेश दिया। स्थिर प्रज्ञ होकर रहने का कहा। विगतस्पृह मत्पर, आदि आदि शिष्य का देते है। गुरूदेव उसे देते। ’’निर्भयः निरंहकार, शान्ति देते है। (गीता) सहयज्ञ करता है। प्रसाद ही खाता है।
’’अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्यपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।। ’’
(गीता 9/22)
प्रभु गुरूदेव भक्त का योगक्षंम स्वयं वहन करते है।
’’पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति ।
तदहं भक्तत्युपहृतमश्रामि प्रयतात्मनः ।। ’’
(गीता 9/26)
भक्त का सब कुछ प्रभु गुरूदेव साकार रूप धारण कर प्रेम पूर्वक ग्रहण करते है।
’’कर्मबन्धनैः मोक्ष्य से ’’ व मुक्ति देते है। उसे गुरूदेव प्रभंवतिधर्मात्मा बनाते है।
और उसे ’’शाश्वच्छान्तिं निगच्छति’’ गीता 9/31 शक्ति देते। और उसे पापी को भी शरण देते। उसे परम शान्ति देते है।
उसे ’’मन्मना’’ बनाते। ’’मद्भक्तो’’ भक्त बनाते।
’’युक्त्वैवमात्मानं’’ अपने में मिलाते गीता 9/34
’’म्हारो भक्त बनी ने रे तो एने बाथ भरी लेतो। ’’ अपनी महिमा व प्रभाव भक्त को समझाते। तत्वज्ञ बनाते। सब भाव उन्ही से उत्पन्न बताते वे आदि है सनकादि के भी। एश्वर्य व विभूति के दर्शन देतेे। वे जगत के कारण है। सब उनमें ही हैै। उन्हे ’’भजन्ते ’’ भजते है। उनकी ’’मच्चिता ’’मदत प्राणा होते है। प्रभु गुरूदेव भक्तों के हृदय में रहकर उनको आगे बढ़ाते है। घनश्याम प्रभु कहते ’’ भक्त के अन्दर अन्दर तैयारी करता हँू और अन्त में चाबी उसे दे देता हँू ’’गीता में प्रभु कहते ’’ भक्तों पर अनुग्रह करते है। उनके अन्तः करण में रहते।है। अज्ञान अंधकार दूर करते है। तत्व ज्ञान देते है। गुरू प्रभु ब्रह्म है। ’’आदि देव है।’’ अजन्मा है। विशुद्ध है। भक्त को स्वयं बताते है। भक्त को ’’भूतभावनं’’ ’’भूतेश’’ देवदेव जगत्पते ’’ रूप दिखाते है। प्रमाण देते है। ’’घनश्याम प्रभु कहते ’’आंखो की किरकियो फेरे तेम जग फेरवूं ’’ घनश्याम प्रभु कहते ’’तमे तो म्हारा अंश छो’’ ’’बीजो कौन छे’’ अपनी लीलाओं से भक्त को अपना स्वरूप दिखाया बताया। समझाया स्वयं श्री मुख से कहा। भक्तों को अनुभव है।वे तो लीला सहयोगी है। उनके माध्यम से जगत की व्यवस्था की। वह पूण्य अनेक रूप में भक्तों को सदैव सब जन्मों में मिला और मिलता रहेगा। उनके स्वयं के सिवाय कौन उनको और उनके काम को समझ सकता। भक्तो को प्र्रभु समझाते है।
’’जानत सोई जेही देही जनाई
जानत तुम्ही होई जाई ’’
’’ब्रह्मविद ब्रह्मेवभवति ’’ (वेद)
गीता में प्रभु कहते-
’’वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्मात्मविभूतयः।
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि।।’’ (गीता 10/16)
केवल गुरूदेव ही अपना स्वरूप कह सकते। व्यापकता को कौन जान सकता। सबके हृदय में है। आत्मा है। ऊँ कार रूप है। ’’छलयताम’’ छलरूप भी है। नमः तस्कराय। गुरूदेव कहते सेठों को ’’तमे डाल डाल हू पातपात’’ आगे कहते ’’हँू चोरो नो बाप चोर’’ अपनो भूमा स्वरूप समझाते। इस जगत को ’’एकाशेन’’ एक अंश से धारण कर स्थित है। (गीता 10) भक्त पर दया कर अपना विराट रूप अर्जुन को दिखाया। अन्यय शक्ति से तत्व से जाने जाते है। प्रत्यक्ष होते है। और एक हो जाते है। ’’तन्मय’’ हो जाते। ’’एकमेव’’ हो जाते है।
गुरूबह्म भक्त को सयंम देते। भक्ति देते। ज्ञान देते। सेवा देते। मुक्ति देते। अपना ’’सर्वत्रगम’’ ’’ध्रुव’’ अचल ’’अत्युक्त’’ अक्षरं स्वरूप समझाते। समबुद्धि देते। अनन्य योग देते। तारते ’’समद्वतो
है। मन बुद्धि प्रभु में लगाती है। गुरूदेव कहते ’’हँू तो एनो मन लेलू छँू’’ अभ्यास व वैराग्य साधन दिये। कर्म प्रभु के लिये ही होने लगते है। ’’सर्वकर्मफल त्यागम् ’’ करातेे। ’’मयि अर्पित मनोबुद्धि’’ बनाते। वह’’हर्षाभर्षनयो द्वे मैं र्मुक्त’’हो जाता है। ’’अनपेक्ष
’’ शुचिर्दक्ष’’ उदीसानो ’’गतव्यथ’’ भक्त बन जाता है। व सर्वइच्छा रहित हो जाता है। ’’ न कोक्षति संगविवर्जित’’ न जाता है। वे भक्त प्रभु के ’’भक्स्तेअतीव में प्रिया’’ प्रभु गुरूदउेव देते ’’मयी अनन्य योगेन’’ और अव्यभिचारीणी भक्ति एवं ज्ञान अध्यात्म ज्ञान नित्यत्वम, तत्वज्ञानार्थ दर्शनम आदि। ज्ञान जिससे परमानन्द हो। और उसके ’’सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ’’ उसके चेतन रूप भक्त को दर्शाता है। सत्व रूप अनादित्म सर्वत्र पाणिपाद, नेत्र, सिर मुरव, श्रोत्र व्यापकत्व, अन्तर्यामित्व, पद्म पत्र विम्भासी है। अविभक्त है। अखण्ड है। गगन सद्वश है। ब्रह्मा विष्णु और महेश भी वही है। परम ज्योति है। वे कहते ’’ज्ञान गम्य ’’ है। गोपाल कहते है। ’’सत्य जाहीर थाय पर एनामे’’ पत्रांे में सत्य भक्तों की बुद्धि में आवे ऐसा समय आवेगा। सतयुग आवेगा। गुरूदेव प्रभु ने बदले में भक्तों सब कुछ दे दिया। भर्ताभोक्ता माहेश्वर परमात्मा रूप भक्त को अनुभव कराते है। मृत्यु लोक मंे भी अमर ’’सयं सर्वेषु भूतेषु’’ को भक्त ही दिखाते है। अमर ’’समंसर्वेषुभूतेष’’ को भक्त हरि दिखाते है अमर कर देते है। उसे ’’सम दुःख सुखः’’ निन्दा स्तूर्ति,मानापमान यो ही सर्वारम्भ परित्यागी होता है। ’’ब्रह्मंभूयाय’’ होता है।
भक्त को ज्ञान और वैराग्य से संसार माया को काटना सिखाते है। गुरू नारायण के ’’प्रप्रद्ये’’ शरण होेते है। उसे अध्यात्म नित्या’’ बनाते। शरण देते। परम पद देते है। जीव अंश है। घनश्याम प्रभु कहते ’’तुम सब मेरे अंश हो प्यारे।’’ ’’मैं तुमारे लिये तो हूँ प्यारे।’’ भक्त को ज्ञानचक्षुषः देते है। सूर्यचन्द्र सबको गुरूदेव प्रकाशित करते दिखाते है। मोटा विश्वनाथ भई को डेरोल स्टेशन पर सूर्य ऊँ के दर्शन हुए। गोपाल मन्दिर झाबुआ में वही केन्द्र में है। वे पृथ्वी को धारण करते है। वे चन्द्रमा बनकर अमृत बरसाते है। वे वैश्वानर अग्नि होकर पचाते है। वे सबके हृदय में है। वेद स्मृति आदि उनके ही गुण गाते है। वे पुरूषोत्तम है। शिष्य को अभय करते । सत्व शुद्ध करते। ज्ञानयोग देते। उसे, दान, यज्ञ, स्वाध्याय, तपः अर्जित करवाते। अहिंसा, सत्य, अक्रोध त्याग शान्ति, दया, तेज क्षमा, धृति, शौचम् अद्रोह अभिमान रहित आदि गुण देते है। शास्त्रविधि से शिष्य को तैयार करते है। जिस प्रकार काली ने रामकृष्ण को शास्त्र ज्ञान दिया। शरीर तप वाणीतप, मनः तप करवाते है सात्विक दमादि क्रियाएं करवाते है। यज्ञ तप और दान करवाते है। करतापन नहीं रहने देते। सिद्धि प्राप्त अपने कर्मो से करते है। स्वेे स्वे कर्मण्य भिरत रहते है। प्रसन्नात्मा रहते है सब में गुरूदेव के दर्शन करते है। सब कर्म मन से गुरूदेव अर्पण करता चलता है। ’’पत्र में लिखा’’ सर्वापण करवा थी सब अपना हो जाता है। घनश्याम प्रभु कहते ’’ तमे तमारी जिन्दगी हमने सोपीं दी तो फिकर सूँ।’’ यानी ’’फिकर क्या।’’ क्या पत्र में पुरूषार्थ बताया।
’’मन से वचन से कर्म से सब गुरूदेव परमात्मा को अर्पण करते जाना ही पुरूषार्थ है इस मार्ग में ’’ (बोध.)
उसे प्रभु शाश्वत पद देते है -
’’ईश्वर सर्वभूतानां हृदेशअर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।।’’ (गीता 18/59)
उसे सब में दिखते और सब को चला रहे